ग़ज़ल-सपेरे भी बहुत हैं !
गो ज़हर भरे नागों के डेरे भी बहुत हैं
पर अपने इलाके में सपेरे भी बहुत हैं
माना के सियह रात है क़ाबिज़ हैं अँधेरे
हर रात के आँचल में सवेरे भी बहुत हैं
तू सोच ले अंजाम अदावत का बुरा है
तेरे हैं बहुत लोग तो मेरे भी बहुत हैं
अब राम ही जाने कि कहाँ राम खो गऐ
अवतार भी लाखों हैं लुटेरे भी बहुत हैं
गर चाँद नहीं चाँद की तस्वीर ही ला दो
है रात अमावस की अँधेरे भी बहुत हैं
कागज़ पे लिखे क़िस्से जलाए हैं कई बार
दिल पे तेरे अफ़साने उकेरे भी बहुत हैं
बस आदमी मिलता नहीं ढूँढ़े से भी ‘शाहिद’
कहने को बड़ा शहर बसेरे भी बहुत हैं