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10 Mar 2021 · 1 min read

ग़ज़ल/मुक्तक — बेतुका अलाप

अपनेपन की गहरी नींद में, जब हम सो जाते हैं साहेब,
तब एक थप्पड़ झन्नाटे से, सपने हमें लगाते हैं साहेब ।

मेरे साथ मुखबिर भी रहते होंगे, ये कहाँ सोचता है कोई,
चेहरा सामने आता है जब वे, दुश्मन के नारे लगाते हैं साहेब ।

सतयुग को तो यहाँ आने में, शर्म महसूस होती होगी,
झूठ बोल-बोल के नेता हमारे, सियासतें चलाते हैं साहेब ।

जाहिलों का बहुत रुआब है, इस आम सी दुनिया में,
अपने सर उनकी महफ़िलों में, पढ़े-लिखे नवाते हैं साहेब ।

इंसानियत वास्ते छातियाँ पीटते, गली-चौराहे शोर मचाकर,
फिर उस रात वाहियात पार्टी में, अपने प्याले छलकाते हैं साहेब ।

ये सारी की सारी गाँधीगिरी, तब बकवास सी लगती है,
जब काले मुंह वाले हर कहीं, आईने हमें दिखाते हैं साहेब ।

मनमर्जी से तू क्या अलाप रहा, तुझे सुनता कौन है “खोखर”,
बहुत से ओहदे वाले भी यहाँ तो, पैर अदब से दबाते हैं साहेब ।

(अलाप = भाषण, बातचीत, कथनोपकथन)
(रुआब = रोब, दबदबा)
(ज़ाहिल = अशिक्षित, मूर्ख, बेइल्म, अशिष्ट, बदमिजाज)

©✍?10/03/2020
अनिल कुमार (खोखर)
9783597507,
9950538424,
anilk1604@gmail.com

Language: Hindi
2 Likes · 233 Views
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