ग़ज़ल/मुक्तक — बेतुका अलाप
अपनेपन की गहरी नींद में, जब हम सो जाते हैं साहेब,
तब एक थप्पड़ झन्नाटे से, सपने हमें लगाते हैं साहेब ।
मेरे साथ मुखबिर भी रहते होंगे, ये कहाँ सोचता है कोई,
चेहरा सामने आता है जब वे, दुश्मन के नारे लगाते हैं साहेब ।
सतयुग को तो यहाँ आने में, शर्म महसूस होती होगी,
झूठ बोल-बोल के नेता हमारे, सियासतें चलाते हैं साहेब ।
जाहिलों का बहुत रुआब है, इस आम सी दुनिया में,
अपने सर उनकी महफ़िलों में, पढ़े-लिखे नवाते हैं साहेब ।
इंसानियत वास्ते छातियाँ पीटते, गली-चौराहे शोर मचाकर,
फिर उस रात वाहियात पार्टी में, अपने प्याले छलकाते हैं साहेब ।
ये सारी की सारी गाँधीगिरी, तब बकवास सी लगती है,
जब काले मुंह वाले हर कहीं, आईने हमें दिखाते हैं साहेब ।
मनमर्जी से तू क्या अलाप रहा, तुझे सुनता कौन है “खोखर”,
बहुत से ओहदे वाले भी यहाँ तो, पैर अदब से दबाते हैं साहेब ।
(अलाप = भाषण, बातचीत, कथनोपकथन)
(रुआब = रोब, दबदबा)
(ज़ाहिल = अशिक्षित, मूर्ख, बेइल्म, अशिष्ट, बदमिजाज)
©✍?10/03/2020
अनिल कुमार (खोखर)
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