ग़ज़ल- मशालें हाथ में लेकर ॲंधेरा ढूॅंढने निकले…
मशालें हाथ में लेकर ॲंधेरा ढूॅंढने निकले।
हुआ अवसान दिनकर का सवेरा ढूॅंढने निकले।।
घरौंदे को जो ठुकरा कर उड़े थे आसमानों में।
परिंदे सांझ होते ही बसेरा ढूॅंढने निकले।।
विषैले नाग का विषपान जो निस दिन किया करते।
पनीले साॅंप के डर से सॅंपेरा ढूॅंढने निकले।।
लुटेरे हर ठिकानों पर मसीहा बनके बैठे हैं।
मसीहा ख़ुद ही देखो तो लुटेरा ढूॅंढने निकले।।
ज़माने भर में वाहिद ‘कल्प’ ही तो सबसे ऊंचा है।
तुझे नीचा दिखाने सानी तेरा ढूॅंढने निकले।।
✍ अरविंद राजपूत ‘कल्प’