ग़ज़ल : ….. बिखर गए घर-बार आजकल !!
….. बिखर गए घर-बार आजकल !!
दिलों में नहीं है वो प्यार आजकल ।
गायब है घरों से संस्कार आजकल ।।
नेताओं के दबदबे से सारे परेशान,,
जनता से है नहीं दरकार आजकल ।।
जिसको चुनके भेजा हमने गद्दी पे,,
वही हुए दोधारी तलवार आजकल ।।
जिसने हमें पैदा किए बड़े दर्द सहके,,
उनसे ही नहीं हमें सरोकार आजकल ।।
“जैहिंद” ये कौन-सा चलन चल गया,,
टूट गए, बिखर गए घरबार आजकल ।।
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दिनेश एल० “जैहिंद”
12. 10. 2017