ग़ज़ल पर ग़ज़ल मैं तुझको सोचकर लिखती रही…
ग़ज़ल पर ग़ज़ल मैं तुझको सोचकर लिखती रही
मेरी ज़िंदगी तुझे मैं उम्र भर लिखती रही
क़िताब- ए- हसरत और मेरे अश्क़ों की सियाही
क़लम से दिल के ख्वाबों का शहर लिखती रही
ये आँखें बरसी वस्ल में कभी हिज्र में रोई
हर अंदाज़ में अपना तेरी नज़र लिखती रही
नादानी लिखती रही हैरानी लिखती रही
पानी कभी पत्थर पे तेरा असर लिखती रही
बात उठे उठकर चले मगर पहुँचे कहीं नहीं
तेरे मेरे बीच रहे इस क़दर लिखती रही
दुनियाँ की भीड़ में हर कोई चाँद तो नहीं
रात के आँगन में तारों का सफ़र लिखती रही
तेरी मजबूरियाँ रही हों ये और बात है
वक़्त-बेवक़्त’सरु’तुझे अपनी ख़बर लिखती रही