ग़ज़ल-न जाने किसलिए
न जाने किसलिए ऐसा यहाँ हर बार होता है
उन्हें काँटे मिले जिनको गुलों से प्यार होता है
हवाओ तुम ही जा कर बिजलियों को आज समझाओ
बहुत मुश्किल से कोई आशियाँ तैय्यार होता है
ख़फ़ा हैं वो कि आँखों की ज़ुबाँ हम क्यूँ समझते हैं
छिपाना राज़ ए दिल उनके लिए दुश्वार होता है
दिमाग़ी बेख़याली में न हाथों को जला लेना
रक़ीबों के नगर में फूल भी अंगार होता है
विरासत में नहीं मिलता किसी को भी हुनर यारो
जो अपने ख़ून से लिक्खे वही फ़नकार होता है
क़तरता जा रहा है पर मेरे सैय्याद तू जितने
मेरे सपनों का उतना ही बड़ा आकार होता है
ये बातें हैं मुहब्बत की इन्हें पर्दे में रहने दे
सभी के सामने तू किस लिए अख़बार होता है
मुहब्बत में वफ़ाओं का असर आने लगा शायद
कि अपने अक़्स में उनका मुझे दीदार होता है
मुखौटे ही मुखौटे हैं जहाँ चेहरे नहीं दिखते
कहानी में वहाँ ज़िन्दा मेरा क़िरदार होता है
सँवारे हुस्न ख़ारों का जो फूलों की तरहा ‘शाहिद’
वही गुलशन में ख़ुशबू का सही हक़दार होता है