ग़ज़ल/नज़्म: सोचता हूँ कि आग की तरहाँ खबर फ़ैलाई जाए
सोचता हूँ कि आग की तरहाँ खबर फ़ैलाई जाए,
क्यूँ ना अपनी आपबीती सबको बताई जाए।
बार-बार मुस्करा के जिसने मेरा क़त्ल किया,
क्यूँ ना उस हसीना पे एक FIR लगाई जाए।
किस थाने में दर्ज कराऊँ मामला दिल का है,
क्यूँ ना उसके मयखाने से हाला चुराई जाए।
जब क़ातिल का दर्जा उसे मन नहीं देता तो,
क्यूँ ना उसकी हर अदा दिल में बसाई जाए।
चुपचाप सिरहाने बैठीं यादें नींदें चुराने लगीं,
क्यूँ ना इनसे अंधेरे में बातें खूब बनाई जाए।
कुलबुलाहटों से चद्दर पे बेशुमार पड़ी सलवटें,
क्यूँ ना अपनी खाट से चद्दर ही हटाई जाए।
ये सपनों की मुलाकातें रातें कटने नहीं देती,
क्यूँ ना बोझिल आँखें अकेले में बहाई जाए।
हर लम्हा, हर वाक्या जगजाहिर हो ठीक नहीं,
क्यूँ ना खास सी ये बातें ज़माने से छुपाई जाए।
ये नाज ओ’ नखरे ओ’ अदाएं तुझे भाने लगे “अनिल”,
क्यूँ ना प्यार से इनके लिए राहें सजाई जाए।
©✍🏻 स्वरचित
अनिल कुमार ‘अनिल’
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