ग़ज़ल/नज़्म — पसन्द आता है
(ग़ज़ल/नज़्म — पसन्द आता है)
मुझे दुश्मनों की गलियों में रहना, पसन्द आता है,
उनका तेरे नाम से मुझे गाली देना, पसन्द आता है ।
एक तू ही है जिसे मैं तनहाईयों में भी, सुनता रहता हूँ,
वरना मुझे कहाँ औरों को भी सुनना, पसन्द आता है ।
हम मौत की शैय्या पर होंगे तो तेरा, दीदार तो होगा ही,
किसी को कहाँ वरना शमशान जाना, पसन्द आता है ।
बदनामी-वदनामी तो महज कुछ, अल्फाज़ हैं मनगढ़ंत,
जुबानों पर हमारी ही सुगबुगाहट होना, पसन्द आता है ।
तू अपने लबों से कुछ बोले ना बोले, हर्ज़ नहीं है मुझे,
तेरे होंठों पर हंसी, झुकी पलकें होना, पसन्द आता है ।
यूँ तो बहुत सी बातें बोल जाती हैं, तेरी उठती-झुकती नज़रें,
पर तेरा चलते-चलते से ठिठक जाना, पसन्द आता है ।
पता है कुछ कच्चे हैं हम अभी, ज़माने की फितरत आगे,
मुझे पर हमारा उन्हें रास नहीं आना, पसन्द आता है ।
दुश्मन भी कुछ सकपका जाते हैं, तेरी गली में मेरे जाने से,
हराने को मुझे उनका चक्रव्यूह बनाना, पसन्द आता है ।
कितने भी बड़े झूमर हों अहंकार के, हवेलियाँ में उनकी “खोखर”,
मुझे मेरे कच्चे घर में तेरा आना-जाना, पसन्द आता है ।
(शैय्या = सेज, खाट, पलंग, बिस्तर)
(अल्फाज़ = शब्द, शब्द समूह)
(मनगढ़ंत = काल्पनिक, असत्य, तथ्यहीन, मिथ्या, मन द्वारा गढ़ा हुआ)
(सुगबुगाहट = कुलबुलाहट, बेचैनी, आतुरता, धीमी आहट, आंतरिक व्याकुलता)
(हर्ज़ = हानि, नुकसान, अड़चन, रुकावट, बाधा)
(सकपकाना = दुविधाग्रस्त होना, घबराना, चकित होना, असमंजस में पड़ना)
***ग़ज़ल मूलतः प्यार की शाब्दिक अभिव्यक्ति दर्शाती है ।***
©✍?08/07/2020
अनिल कुमार (खोखर)
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