ग़ज़ल/नज़्म – उसका प्यार जब से कुछ-कुछ गहरा हुआ है
उसका प्यार जब से कुछ-कुछ गहरा हुआ है,
कई नज़रों का उस पे निशाना ठहरा हुआ है।
एक क़दम भी गर वो चलती है मेरी गली में तो,
उसके पैरों पे न जाने किस-किस का पहरा हुआ है।
रोक पाएगा ज़माना कैसे प्यार में धड़कते दिल को,
उसके-मेरे इश्क़ का झण्डा दोनों दर पे फहरा हुआ है।
इश्क़ के चौक में तो बजे हैं सुहाने तराने सदियों से,
हर शख़्स उन्हें सुनने को आज़ क्यों बहरा हुआ है।
यूँ तो सब के सब सजाते हैं बहुत से गमले आँगनों में,
प्यार की हरियाली पीछे क्यूँ सूखे दिलों का सहरा हुआ है।
एहसास होता है उसे भी पीछे दौड़ती सी आवाजों का,
पर मौन है वो भी कि ये वक्त हमारे लिए ठहरा हुआ है।
प्यार के दरख्तों को भले ही ताउम्र पानी ना दे ये ज़माना,
देख ले नज़र भर के ये भी कि हर सूखा पत्ता सुनहरा हुआ है।
(सहरा = जंगल, वन, खाली स्थान)
©✍🏻 स्वरचित
अनिल कुमार ‘अनिल’
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