ग़ज़ल- धरती ने ऐसे झकझोरा
ग़ज़ल- धरती ने ऐसे झकझोरा
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पल पल कितना डर लगता है
कातिल अपना घर लगता है
डर के रँग में रँग जाए तो
क्या कोई सुन्दर लगता है
धरती ने ऐसे झकझोरा
हीरा भी पत्थर लगता है
हम भी मर जायेंगे शायद
रोजाना अक्सर लगता है
बाहर है यह साया कैसा
मौत खड़ी अन्दर लगता है
उम्मीदों का पंछी घायल
देखें कैसै पर लगता है
कैसे हम ‘आकाश’ रहेंगे
छूते सब खंजर लगता है
– आकाश महेशपुरी