ग़ज़ल:- दे मौला….
ऐ भूत मज़हबी सर से उतार दे मौला
मेरे वतन में भी चैनो-बहार दे मौला
उबाऊ जिंदगी से अब उवार दे मौला
जो एक पल दे मग़र यादगार दे मौला
भटक न जाएं कहीं राह से तेरे वंदे
दिखाये राह सही ऐसा यार दे मौला
कुटुम्ब सारा ज़हां बट गया यूं मुल्कों में
हर एक मुल्क़ की रंगत निखार दे मौला
हैं मुफ़लिसी से परेशां वब़ा के मारे जो
हर एक शख़्स की किस्मत सॅंवार दे मौला
मरें न कीड़े मकोड़ों की तरह अब इंसां
वब़ा की मार से सबको उवार दे मौला
लहू बहाया शहीदों ने मुल्क की ख़ातिर
जमीन-ए-हिंद पे ज़न्नत उतार दे मौला
✍ अरविंद राजपूत ‘कल्प’