ग़ज़ल “टूटे दिल को
क्यूँ अश्कों से भीगा तेरा चहरा लगता है
देखे न सुने न ज़माना ये बहरा लगता है।
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वो चोटें जो एवज वफ़ा के खाई थीं मैंने
उनका घाव दिया आज तलक गहरा लगता है।
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कैसे बीतेगी उम्र अब बिना तेरे साथी
अब तो सांसों पे भी मौत का पहरा लगता है।
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मिल जाती थी अब्सारों में सूरत गुलशन की
अब तो तूफां सा अश्कों का ठहरा लगता है।
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मोहब्बत में सहरा भी आए नजर खियाबां
सावन के अंधे को हर तरफ हरा लगता है।
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हम ढूँढ रहे आज तलक ही वह सिर्फ नजारा
टूटे दिल को गुलशन भी इक सहरा लगता है।
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इस दर्द भरी दुनिया में मिल सकते आप अगर
अब तो ये टूटा सा ख़्वाब सुनहरा लगता है।
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रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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