@ग़ज़ल:- क्या रक्खा है…
कलियों का मकरंद पिया तो, क्या रक्खा है फूलों में
बाहों में जब झूल लिया तो, क्या रक्खा है झूलों में।।
आज़ाद गगन के पंछी को, बंधक बन रहना ठीक नहीं।
तोड़ के सारे बंधन उड़ जा, क्या रक्खा है उसूलों में।।
बाधाएं श्रृंगार राह की, क़द मंज़िल का बतलाती।
चल तलवार की नोक पे चल, क्या रक्खा है सूलों में।।
नियम बनाने वाले कब-कब, पालन इनका करते हैं।
तोड़ के वेरीगेट्स चला चल, क्या रक्खा है रूलों में।।
‘कल्प’ दंत मंज़न तो कर ले, दांत रजत सम चमकेंगे।
दातून चबाना छोड़ो-छाड़ो, क्या रक्खा है ब़बूलों में।।
✍ अरविंद राजपूत ‘कल्प’