ग़ज़ल-अपनी ही एक ख़ुमारी है !
वैसे तो दुनिया को दुनिया प्यारी है।
पर मुझ में अपनी ही एक ख़ुमारी है।
याद नहीं आता है अब कोई मुझको,
दुनियादारी आख़िर दुनियादारी है।
कैसे उसकी बातों का विश्वास करूँ,
वो तो पूरे का पूरा अख़बारी है।
इज़्ज़त होती है दुनिया में झूठों की,
और मुझे सच कहने की बीमारी है।
हर पिछली पीढ़ी की क़िस्मत है ऐसी,
वो आने वाली पीढ़ी से हारी है।
रोज़ दिलासे देता है झूठे मुझ को,
क्या तेरा दिल भी दफ़्तर सरकारी है।
लोग उसी को सर पर रक्खे फिरते हैं,
मैंने जिस दुनिया को ठोकर मारी है।
बच्चों की नज़रों से देखो दुनिया को,
लाख बुरी हो फिर भी कितनी प्यारी है।
बात ज़हन की मानें या कर लें दिल की,
सदियों से ये एक लड़ाई जारी है।
जंगल की तहज़ीब उगी है चेहरों पर,
और दिलों में बाक़ी बस मक्कारी है।
नाच रहा है कौन नचाए कौन यहाँ,
बोलो कौन जमूरा कौन मदारी है।
सर्दी,गर्मी,धूप,हवा,ख़ुशबू,बारिश,
कुदरत में देखो क्या क्या फ़नकारी है।