गली के उस मोड़ पर…
उस पीली मीनार से सटी
साफ दिखती है वो छत
गली के उस मोड़ से
जिसकी मुंडेर पर
गुलाबी पल्लू में सिमटता
मुस्कुराता हुआ
एक हसीन चेहरा
दांतो में चूनर दाबे
नजरें झुका कर
दौड़ जाता है
पलट के देखता है
अचानक फिर
और उकेर जाता है हाथों से
दिल की अल्पना
रिक्त आकाश में
हमारी साईकिल भी
रोज आ रुकती है
गली के उस मोड़ पर
इक छटपटाहट लेकर
कि आज फिर दिखेगा
वो चेहरा छत की मुंडेर पर
फिर शुरू होता है
खयालों का सिलसिला
प्रेम के प्रस्फुटन से
अंकुरित उल्लास का
दे दिये जाते हैं कई नाम
मानद उपाधियों की तरह
मुंडेर की उस बुलबुल को
कभी बालों में हाथ
कभी कॉलर सही करना
तो कभी इधर-उधर देख
ये सुनिश्चित करना
कि कोई देख न रहा हो
फिर इसी कशमकश में
उसको देखने की चाह
आसमान में तैरती हुई नजरें
तलाश रही होती हैं
गुलाबी डुपट्टे में सिमटे
उसी चेहरे को !
गली के उस मोड़ पर….
✍ लोकेन्द्र ज़हर