गर मुक़द्दर जुदा नहीं होता
गर मुक़द्दर जुदा नहीं होता
फ़ायदा जो हुआ नहीं होता
कुछ किसी ने सुना नहीं होता
तू ने गर कुछ कहा नहीं होता
कोई पढ़ता न उस इबारत को
नाम तेरा लिखा नहीं होता
दिल भी रोता न चैन भी खोते
तुझ से गर सामना नहीं होता
पार दरिया को किस तरह करते
तू अगर रहनुमा नहीं होता
राह मिलती न मंज़िलें मुझको
साथ गर नाख़ुदा नहीं होता
सबका अख़लाक़ है जुदा सबसे
दिल भी तो एक सा नहीं होता
संगदिल आदमी हुआ करते
संगदिल आइना नहीं होता
ये पता है कि मौत आएगी
कब है आनी पता नहीं होता
– डॉ आनन्द किशोर