गरीब की दिवाली।
बच्चों ने मुझसे आज न पटाखे मांगे हैं,
न ही कहा पिता जी मिठाई तो लाओगे।
रोटी की भूख मन ही मन में झेल रहे थे,
न खुश से एक पिता के बच्चे खेल रहे थे।
रुकते हुए कदम न लड़खड़ाने दिए हैं,
गड़बड़ है बस यही कि ये पानी के दिए हैं।
यूं तो हमारी भी दिवाली अच्छी गुजरती,
लेकिन कमी यही है के रोटी ही नहीं है।।
लेखक/कवि
अभिषेक सोनी “अभिमुख”