गरीब का ए. टी. एम्.
मेरे देश का गरीब,
वह ए. टी. एम्. है
जिसमे लगता है जब भी
शासन की कुटिल, लच्छेदार और ‘समझदार’
नीतियों का डेबिट कार्ड,
तो बाहर आता हैं
दर्द..
पछतावा..
पिछले सभी वादों का भुलावा
सामने से गले लगने की प्रथा बाहर आती है
और पीछे से चाकू घोंपने का छलावा
बाहर आती है
कमरतोड़ मेहनत.. लाचारी..
बूढ़े माँ बाप की बीमारी
जवानी में आँखों के नीचे धब्बे स्याह
कुँवारी लाड़ो का ब्याह
बाहर आती है कलेजे में दफ़न टीस
स्वप्निल लाडले की फीस
नेताओ की चपलता बाहर आती है
सिस्टम की छदमता बाहर आती है
दिहाड़ी मज़दूर की मज़दूरी बाहर आती है
बूढ़ों की मज़बूरी बाहर आती है
एक किसान की विवशता बाहर आती है
बाहर आता है उसका दुर्दम्य संघर्ष
जो शुरू होता है खेत से
श्रमजीवी रेत से
और खत्म होता है खेत पर
जिसका संघर्ष मिटटी में
पसीने की बूंद मिलने से
शुरू होता है
और खत्म होता है उसी
मिटटी में मिलने पर
जिसका संघर्ष शुरू होता है
दुनिया को अनाज़ बांटने पर
और खत्म होता है सरकार से प्राप्त
2 रुपये किलो गेंहू ‘चाटने’ पर
मैं पूछता हूँ!
इस लंबी कतार में
कोई नेता क्यों नही है?
कोई अभिनेता क्यों नही है?
कोई बैंकर क्यों नही है?
कोई उद्योगपति क्यों नही है?
कोई अधिकारी-आला क्यों नही है?
कोई सूट-बूट वाला क्यों नही हैं?
आखिर क्यों खड़ा है वही शख्स
जो कभी खास नही हुआ
कालेधन की परीक्षा में
कभी पास नहीं हुआ
जो हमेशा से आम रह गया है
सिसकना जिसका काम रह गया है
अगर कतार में मरना
नोटबंदी की देशभक्त पहल में
शहीद होना है,
तो बताइए हुक्मरानों
क्या आप भी होंगे शहीद?
जी नही,
इसे उन्ही पर छोड़ दीजिए
बीड़ा हमेशा जिन्होंने उठाया है
शासन के आगे घुटने टेकने का
कुछ ‘खासों’ के आगे
करोड़ों ‘आमों’ को मेटने का
आह नियति!
कतार में खड़ा वह पैसों के चाव में है,
उसे क्या पता? कि मौत यहाँ थोक के भाव में हैं!!!
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– नीरज चौहान की कलम से..