गरीब आदमी नहीं दिखने की मजबूरी
गरीब आदमी नहीं दिखने की मजबूरी का दर्द सब नहीं समझ सकता है। क्योंकि यह लौकिक नहीं है। गरीब, मजदूर, ऐसा संवेदनशील शब्द है जिसको बोलकर मानो हर कोई संवेदनशीलता की कक्षा में सबसे अग्रिम पंक्ति में बैठकर बिना प्रश्न पूछे ही उत्तर देने की होर में शामिल हो धारा प्रवाह बोलने के अपने हुनर को इस तरह से प्रदर्शित करता है कि यदि ओ आज चूक गया तो फिर ये मौका उसे मिलने वाले मेडल से वंचित ना कर दे।
मैं आज ऐसे वर्ग की तरफ ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं जो गरीब तो है, लेकिन मजबूरी में, न अपने को गरीब बोल पता है और ना ही ओ अपने फटे कपड़ो को दिखा ही सकता है। ऐसा नहीं की उसका कपड़ा फटा नहीं है, लेकिन ढक कर जाहिर नहीं करना चाहता है। उसका अंतः वस्त्र फटा होता है लेकिन एक शर्ट और एक पैंट के अंदर ढका होता है। इत्तेफाक से तार पर उसके सूख रहे चड्डी या बनियान पर यदि आपकी नजर पड़े और उसमें उपजे सहस्त्र छिद्र मानो चीख चीख कर कह रहे हों कि गरीबी की युद्ध में ओ भी सबसे आगे रहकर सारी गोलियों को अकेले ही झेला है और कभी उफ तक नहीं बोला, तब जाके आपको कुछ एहसास हो। रो तो वो भी रहा है, लेकिन आप देख नहीं पाएंगे। दर्द तो उसको भी है लेकिन आप महसूस नहीं पाएंगे और यदि आप महसूस कर भी ले तो आप लिख या बोल नही पाएंगे क्योंकि आपको संवेदनशीलता वाला सर्टिफिकेट को खोने का डर रहेगा।
जरा उसके बारे में सोचिए: जो सेल्स मैन है; लेकिन एरिया मैनेजर बोलके घूमता है। बंदे को भले आठ हजार मिलता हो लेकिन गरीबी का प्रदर्शन नहीं करता है।
सेल्स एजेंट के बारे में सोचिए: जो मुस्कुराते हुए, आप कार की एजेंसी पहुंचे नहीं कि कार के लोन दिलाने से लेकर कार की डिलीवरी तक, मुस्कुराते हुए, साफ़ सुथरे कपड़ो में आपके सामने हाजिर रहता है। मैंने संघर्ष करते, वकील, पत्रकार, एजेंट, सेल्स मैन, छोट मझौले दुकानदार, प्राइवेट कंपनी में काम करने वाले क्लार्क, बाबू, धोबी, सैलून वाले आदि देखे हैं।
ये लोग भले ही चड्डी-बनियान फटे हो मगर अपनी गरीबी को प्रदर्शित नहीं करते हैं और ना ही इनके पास मुफ्त में चावल पाने वाला राशन कार्ड है ना ही जनधन का खाता। यहां तक कि गैस की सब्सिडी भी छोड़ चुके हैं। ऊपर से मोटर साईकिल की किस्त या घर का किस्त ब्याज सहित देना है। बेटा बेटी की एक माह का फीस बिना स्कूल भेजे ही इतनी देना है, जितने में दो लोगो का परिवार आराम से एक महीना खा सकता है, परंतु गरीबी का प्रदर्शन न करने की उसकी आदत ने उन्हें सरकारी स्कूल से लेकर सरकारी अस्पताल तक से दूर कर दिया है।
ऐसे ही टाईपिस्ट, रिसेप्शनिस्ट, आफिस ब्वॉय जैसे लोगों का वर्ग है।
ऐसे ही एक वर्ग घर-घर जा कर पूजा पाठ करके आजीविका चलाने वाले ब्राम्हणों का है। लॉक डाउन के कारण आे वर्ग भी बुरी तरह से प्रभावित है जो कभी दुनियां को वैभव का आशीर्वाद देता था आज सामान्य जीवन भी नहीं जीने को मजबूर है। इन लोगो का दर्द किसी की दृष्टि में नहीं है।
ये वर्ग या लोग फेसबुक पर बैठ कर अपना दर्द भी नहीं लिख सकते। गरीब आदमी नहीं दिखने की मजबूरी जो ठहरी। हालांकि सुनेगा भी कौन…✍️