गरीबों के हिस्से की दीवाली
दिवाली तो होती ही अमीरों की है ,
गरीबों की भला क्या दिवाली ।
कड़े परिश्रम से चार पैसे जेब में है आते,
उतने भी यह महंगाई डायन कर देती खाली ।
हम दूर गांव से आए शहर में धन कमाने को ,
मिट्टी के दिए ,खिलोने और जरूरी सामान बनाकर ।
सोचा था इन्हें बेचकर कुछ राहत हम पाएंगे ,
मगर सपनों को धाराशाई कर गई गाड़ी एम एन सी बी वाली ।
करोना का नाम लेकर हमारे पेट पर मारी लात ,
मिट्टी में मिल गई साल भर की हमारी मेहनत ।
खुद तो मोटी तनख्वाह पाते और दिवाली बोनस ,
और हमारे अधिकार की रोटी पर करते कुठारघात।
ना मानो बात करते झगड़ा और देते हमें यह गाली ।
आए दिन वैसे भी पुलिस वाले खा जाते कमीशन,
इन लुटेरों के राज में भला क्या होगी आमदन।
क्या पैसे कमाने का अधिकार सिर्फ इनको है ,
क्या हमारे पास पेट नहीं या तन में नहीं प्राण।
हमारा जीवन क्यों रहे खुशियों से खाली ।
हे ईश्वर ! अब तुम्हीं बताओ कैसे जिएं हम ,
क्या हमें सपने देखने का भी अधिकार नहीं।
सपने तो दूर की बात ठीक से जीवन यापन ,
करने का भी हमें अधिकार नही ।
आखिर कब मनाएंगे हम अपने हिस्से की दीवाली ?