*गरीबी में न्याय व्यवस्था (जेल से)*
आजादी तो हक है मेरा, बेगुनाह को फांसा क्यों?
रोम रोम में कपट तुम्हारे, देते क्यों दिलासा यूं?
चोर उचक्के और लुटेरे, चारों ओर मिल जाएंगे।
दया ईमान व सच्चे मानव, यहां कहां मिल पाएंगे?
तुमने तो पागल ही समझा, मैं भी कलम सिपाही हूं।
सुधार करूंगा मैं कलम से, जीवित एक लड़ाई हूं।
हम करते दिन रात मेहनत, तुम हराम की खाते हो।
जीवन किसका लगा दाब पर, ये क्यों भूल जाते हो?
आंखों पर रिश्वत का चश्मा, पहनों और खिझाते हो।
बात आती जब न्याय की, चक्कर क्यों लगवाते हो?
तुमको शायद पता नहीं है, यहां कितने भूखे नंगे हैं।
रोटी नहीं भूखे सोते, ऐसे भी भिखमंगे हैं।
हो जाए गर दया तुम्हारी, फिर तो इनका क्या कहना?
भाई से जो बिछड़ा भैया, मिल जाएगी अब बहना।
तुमको तो पैसों की चिंता, मानवता को खो बैठे।
कितने गरीब और बेसहारा, अपना सब कुछ खो बैठे।
मेरी नजर में सब गुनहगार नहीं, कुछ तो पावन गंगा से।
उनका कोई दोष नहीं है, फिर क्यों लगते दंगा से?
वकील पुलिस का भी यही हाल है, पैसा खाते पचाते हैं।
क्या बेच कर लाया मुजरिम, ये क्यों भूल जाते हैं?
न्याय वकीलों के चक्कर में, बिक जाते घर के गहने।
रोटी तक ना बचे हाथ की, कपड़े फट गए क्या पहनें?
पैसा सभी के पास नहीं है, बिन पैसा के काम नहीं।
न्यायपालिका भी बिकती देखी, बस हों दाम सही-सही।
आबरू मिट्टी में मिल जाती, मां बेटी को बेच रही।
अधिकतर भ्रष्ट हुआ न्यायतंत्र, बात कहूं मैं खरी खरी।
बेगुनाह को फंसाकर के, क्यों गुनहगार बनाते हो?
निर्दोष आतंकी तक बन जाता, जब झूठी सजा सुनाते हो।
अहसास तुमको भी हो जाए, जेल में एक दिन आकर देखो।
एक गरीब निर्धन की भांति, यहां का सब कुछ खाकर देखो।
पर मैं तुमसे यह न कहता, दोषी को ना सजा सुनाओ।
केस का स्तर भी तुम देखो, पर्याप्त गुनाह के सबूत जुटाओ।
चर्चित न्याय भी कुछ का है, सब एक जैसे नहीं होते।
कुछ बेईमान हैं भले ही, कुछ सच्चाई पर अड़े रहते।
उनके लिए यह सीख नहीं है, जो सच्चे जग में अच्छे।
सुधार करो नहीं लिखूंगा आगे, बनो न कानों के कच्चे।
मैं उनका शुक्रगुजार हूं, जो ऐसा ना काम करें।
मेरे जैसे निर्दोषों को बचाकर, जग में ऊंचा नाम करें।
जो ईमानदारी से काम करेगा, पूजेगा उसको जहांन।
ऐसे लोगों पर नाज होगी, देश बनेगा तभी महान।
न्यायव्यवस्था ये कहती है, गुंडो की सब कुछ सहती है।
नियम आवाम के लिए सब, शासक से कुछ ना कहती है।
पहले हमने सुना था केवल, अब तो ये भी देख लिया।
गुण्डों की आ जाती वारी, गरीबों का बहिष्कार किया।
जैसा नहीं सोचा तुमने, ऐसा भी हो जाता है।
रात रात में रूल्स बदल जाएं, कोर्ट भी खुल जाता है।
सुनवाई रातों रात हो जाए, बेगुनाह को सजा सुनाएं।
रात और रात केस घुमाएं, रस्सी का सांप बनाएं।
न्याय में आईपीसी लगाएं, सीआरपीसी न देख पाएं।
अधिकतर के लिए न्यायव्यवस्था,ऐसी भूखी नंगी है।
रोटी हाथ की छिन जाती, पैसों की भिखमंगी है।
सोचता आदमी क्या-क्या है, क्या-क्या हो जाता है?
भागा दौड़ी बेचैनी हताशा, घर तक भी बिक जाता है।
पर मैं तुमसे यह न कहता, ऐसा ना तुम काम करो।
गुनहगार को भेजो जेल में, बेगुनाह को बाहर करो।
चोर से आतंकी बन जाता, जब जेल से बाहर आता है।
जो काम न सोचा होगा, वो काम कर जाता है।
समाज अपने रिश्ते नाते, सब कुछ छोड़ जाता है।
अखबारों की हेडिंग बनती, छप जाते लाखों पर्चे।
कितने निर्दोष बेसहारा मरते, चारों ओर इसके चर्चे।
अगर पहुंची हो ठेस किसी को, ईमानदारी से माफी है।
शेष बची न्याय व्यवस्था में, लगातार सुधार बाकी है।
जनता की लाचारी है, हम सब की जिम्मेदारी है।
जनता क्यों कराह रही है, ये सोचने की बारी है।
ताखता तक पलट देते सब, जब आती इनकी बारी।
जो लोभी नहीं न्यायप्रिय व्यवहारी है, क्षमा उनसे भारी है।
न्यायवादी बने रहो तुम, न्याय ईमान पर आधारी है।
दुष्यन्त कुमार अच्छे सच्चों का, सदा सदा आभारी हैं।।