“गरीबी मिटती कब है, अलग हो जाने से”
गरीबी मिटती कब है, अलग हो जाने से।
ज़ख्म पूजते नहीं चोट पे चोट खाने से।
वो खानदानी असर है बात बन ही जाती।
आग बूझती नहीं जानबूझकर लगाने से।
अक्सर बदल जाते हैं तेवर मां बाप के भी।
बेटे की कही सरकारी नौकरी लग जाने से।
शौक से उठाते है, नफ़रत से वे उंगलियां।
बदलते नहीं इरादे बार-बार समझाने से।
खुद को क्यों मुसीबत में फंसाते,उलझाते रहें।
मिलती नहीं कामयाबी लक्ष्य भटक जाने से।
जिन्हें इज्ज़त का रहनुमा समझते थे सब।
अब डरते नहीं वो इज़्ज़त खाक में मिलाने से।
रखते हैं हिसाब वे पल-दो पल का किसलिए।
बदलते नहीं औकात आशियाना बदल जाने से।।