रोटी जोड़ना सब्जी जुटाना याद है
वो ग़रीबी का हमें अब तक जमाना याद है
जोड़ना रोटी कभी सब्ज़ी जुटाना याद है
रोज पर्दा डालते थे दर्द पर हम इस कदर
एक चेहरे पर नया चेहरा लगाना याद है
एक गोलक की ख़ज़ानों से बड़ी औकात थी
उन खज़ानों को खुशी से फिर लुटाना याद है
फ़र्क़ बाहर और अंदर की फ़ज़ा में कुछ न था
तन पे पन्नी और बारिश का जमाना याद है
गलतियां अपनी नहीं थी और इसके बावजूद
तंज़ आपनों के वह बातों का निशाना याद है
वक़्त की ‘अरशद’ नज़ाकत देखकर चलते रहे
जीतकर अक्सर खुशी से हार जाना याद है