गरीबी और ईमानदारी
दिक्कतें ही दिक्कतें है, जिंदजी तेरे हर मोड़ पर ।
ज्यादा खड़े कम लेटे हुए है, पत्थर मेरे रोड़ पर ।।
है नही कोई ज़ुलैख़ा, जो कैद कर ले मुझे मेरे नूर पर ।
यूसुफ़ मुझे होना नही है, अंधरे और रहस्य के नाम पर।।
क्या दिया उसने मुझे, तौहीन और मुफ़लिसी के सिवाय ।
पैदा मुझे कर दिया, झोपड़ी में चिराग़ के नाम पर ।।
ढो रहा हूँ, ज़िल्लत की ज़िंदगी और समाज की ठोकरें ।
ख़ुदा भी ख़ामोश है, घिसते-सूखते मेरे बदन को देखकर।।
ना कोई मज़हब ना कोई जाति चाहिए अब मुझे ।
शानौ शौक़त की जमी और अमीरी चाहिए मुझे ।।
मेरा मज़हब, ईमान मेरा, गरीबी में फाँसी चढ़ गया ।
झूठ और बैमानियत, अमीरों के द्वार पर हँस रहा ।।