गरम आजु लोहा बा हालात के।
गरम आजु लोहा बा हालात के।
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गरम आजु लोहा बा हालात के।
इहै बा समयिया खुराफ़ात के।
सियासत ग़लत भा सही जे करे,
मगर आजु जलवा बा हजरात के।
उहे ताज पहिने जे लबरा बनल,
सियासत बनल खेल शह-मात के।
पुका फारि रोईं सुनी के इहाँ,
कहाँ कद्र बा कवनो ज़ज्बात के।
चुनावी समर के बयरिया बहल,
दिखी अब नजारा भितरघात के।
भला जे करी का ऊ नेता बनी,
सियासत न होला कबो तात के।
नजरिया के पानी मरल चोर ऊ,
उहे भेद समझे न दिन- रात के।
चलल खेल कुर्सी त उनके मिलल,
सिकंदर बनल बा जे लमहात के।
कहत बा सचिनवा सुनी गौर से,
भरोसा गलत बा इ खैरात के।
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’