“गति”
हृदयवाहिनी पर जगह-जगह
अपमान के बाँधों ने
मन-तरंग रुद्ध किये।
विषाक्त हो रहा था अन्तस – सरोवर।
इस दूषण से आहत हुए उर -शैवाल
मरने लगीं भावनाओं की मीन।
हिय तरणि की रवानी,
बाधित होने लगी।
उसे अविरल गति चाहिए थी
नेह की,विश्वास की,सम्वाद की।
वंचना के अवरोध समाप्त होने ही चाहिए
ताकि,
जीवंत रहे प्रेम
और जीवित रह सकें,
तुम और हम।
©निकीपुष्कर