गणतंत्र का तिहत्तर बटा एक और साल
सुना हम,
पूरी दुनिया से बेहतर हैं
वेदों पुराणों शास्त्रों,ऋषि-मुनियों की संतानें हैं
मर्यादा पुरुषोत्तम की वंशावली,
वासुदेव केशव कृष्ण के रहबर,
गीता कुराण बाइबिल गुरुग्रंथ के अनुयायी,
सुना हम ब्रह्मा विष्णु शंकर
गौरा पार्वती जानकी के वंशज हैं।
सुना हम,
तैंतीस करोड़ देवी देवताओं के उत्तराधिकारी हैं
जम्बूद्वीपे आर्यावर्ते भरतखण्डे भारतवर्षे के
हम ही रक्षक और हकदार हैं
गंगा जमुना सरस्वती सिन्धु सतलज नर्मदा कावेरी के,
हम ही तो उपासक हैं।
सुना हम,
लज्जावन मर्यादावान धर्मावलम्बी हैं
सती सावित्री की परम्पराओं वाले
श्रवण कुमार की मातृपितृ सेवाधारा वाले
यहाँ मातृपितृ देवसम, माँ बहन नारी देवी तुल्य।
सुना हम,
सर्वश्रेष्ठ हैं स्वतंत्र हैं जनतंत्र हैं
हमें गर्व है अपनी आजादी पर,
गर्व है प्राण निछावर करने वालों लाखों पर,
मंगल पाण्डे लक्ष्मीबाई भगतसिंह से लेकर
राष्ट्रपिता बापू गांधी पर।
सुना हम,
बहुत हद तक विश्वशक्ति बन गये,
अशेष बनने वाले हैं।
किन्तु देखा,
हम ही सर्वश्रेष्ठ भ्रष्ट भी हैं
रोग-भुखमरी-गरीबी से त्रस्त भी,
लज्जा के परदों आडम्बरों घूंघटों में,
औरत को छुपाने वाले
हम ही सर्वाधिक बलात्कारी भी हैं
मछलियों मच्छरों कीड़ों की तादाद में,
संतानें भी हम ही पैदा करते हैं
कहीं टीवी अखबारों में कंडोम के नामपर,
अश्लील नग्न विज्ञापनों से कमाई में इजाफा
वहीं झुग्गी से कोठियों तक पैदाइश में इजाफा
कहीं गरीबी है कहीं धर्म है कहीं शर्म है
दस-दस फीसदी की तादात में बढ़ता,
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति भूमि का भार।
और देखा,
दुनिया की सर्वाधिक हत्याएं
दुनिया के घिनौने अपराध
काले धंधों से काले धन के हम अंबार
रिश्वत लेने-देने में हम उस्ताद
कहीं पुरातन वेद पुराणों के वक्ता व्यापारी
कहीं नग्न-दर-नग्न नाचता समाज,
अंगूठा छापों से लेकर साक्षरों को,
पाँच साल में एक बार
पव्वा, कंबल, पाँच का नोट चाहिए,
सियासती शहंशाओं को सिर्फ वोटर
बेसुध अनगिनत अंगूठा छाप चाहिए,
दिन-दिन बढ़ती सवा सौ करोड़ की भीड़
किसे सुध स्वच्छ निर्मल भारत की,
गंगा यमुना निर्मल संस्कृति मर्यादा की
किसे जरूरत नसबंदी-नशाबंदी की
किसे फिक्र अगली आदम पीढ़ी की
किसे पीड़ा अगले दशक, अगली सदी की,
कहाँ ग्लोबल वार्मिक कहाँ मानव सभ्यता
अपनी ढपली, अपना राग।
और देखा,
यूरोप से अमेरिका जापान तक
आज हम सबके प्यारे,
हम ही दुनिया का बाजार, ग्राहक सारे
अखरेंगे दुनिया को ‘मेक इन इण्डिया’ जैसे नारे
लाखों यहाँ निर्धान लाचारी में आत्महत्या कर लेते
करोड़ों यहाँ दूसरों के कोल्हू पर,
जीवन भर पसीना बहाते मर जाते
दाल रोटी लिबास पर ही एक तिहाई मर जाते।
और देखा,
इस समाजवादी जनतंत्र में मुठ्ठी भर लोग
ड्रॉइंग रूम की तरह साफ सुथरी शक्लें सजाकर,
अंतर्राष्ट्रीय शान बन जाते
महानगरों में हम ब्रिटेन अमेरिका से आगे
गाँवों कस्बों में, इथियोपिया अफ्रीका से पीछे
मुखैटों का फरेबी फेरा, दीपक तले अंधेरा,
खूब याद हैं संविधान प्रदत्त मूल-अधिकार हमें,
पर कहां मालूम मूल- कर्तव्य हमें।
ऐसा है आज,
सोने की चिड़िया मेरा भारत महान
मुबारक हो हमें
अपनी ही आदतों का ये हश्र, ये हाल
मुबारक हो हमें,
स्वतंत्रता का चौहत्तर बटा एक और साल।
-✍श्रीधर.