गज़ल
हॅंसी ख्वाब आंखों मे्ं पलते रहे हैं!
उन्हें बारहा सच भि करते रहे हैं!
बिना यत्न के जो जमें से पड़े थे,
पसीने कि लौ से पिघलते रहे हैं!
तुम्हारी इबादत मे्ं हम खो गये थे,
सुबह शाम यूँ ही तो् ढलते रहे हैं!
गिरे थे कई बार हारे नहीं हम,
कि गिरकर हमेशा सॅंभलते रहे हैं!
शजर हमने् देखे है्ं कुछ ऐसे् यारो,
बिना खाद पानी के् पलते रहे हैं!
तुम्हारे विरह में कई बार टूटे,
दिए आश के फिर भि जलते रहे हैं!
जलाया जो् था प्रेम का दीप तुमने,
उसी लौ मे्ं प्रेमी सॉंवरते रहे हैं!
……. ✍सत्य कुमार ‘प्रेमी’