गज़ल
चराग
मैं बनके चराग-ए-चमन जलती ही रही महबूब
बड़ी शिद्धतों से अहले वफा तुमने निभाई खूब…… l
ए काश कि हमभी सनम होते तेरी तरह
फिर देखते हमभी कि ये क्या करती मेरी विरह ….l
जलना ही है नसीब में हर रात चराग की
देता है ये तों रोशनी,मिटा रैंना विराग की…….l
एक चराग ही तों है लिए अंधेरा खुदी तले
न जाने क्यों परवाने शमा पे इसकी ही जले ….l
शायद वही खूब जानते,बात खास चराग-ए आभ की
मिलते हैं एेसे जैसे महबूबा मिले माहताब की ………l
बस और क्या लिखूँ मैं गज़ल एक चराग की
रोशन है ज़िससे सारा जहां वो आग है उम्मीद-ए-चराग की ..l
नीलम शर्मा