गज़ल
फ़िलबदीह -११९
तारिख़-२१/५/१७
मिसरा-इल्म उसका घटा नहीं सकता।
क़ाफ़िया-आ
रद़ीफ़-नहीं सकता।
गिरह-इस क़दर है खफा माशूका मेरी,
इल्म उसका मैं घटा नहीं सकता।
१)
रोज़ ही मिलतें हैं दो दिल इश्क में छिपके,
कोई भी सिलसिला ये छुड़ा नहीं सकता।
२)
हुस्न है तेरा, या दमक है सूरज की
तुझको कोई दीया दिखा नहीं सकता।
३)
इश्क में ग़र वफ़ा हो इकतरफा
खुदा भी उसको निभा नहीं सकता।
४)
माहताब चाहता है महबूब चकौर
चांद को पर वो पा नहीं सकता।
५)
प्यार का हासिल इस ज़माने में
हिसाब-ए-चाहत,लगा नहीं सकता।
६)
पोंछ दूं आ मैं अश्क तेरे नीलम
द़ाग पर दिल के मिटा नहीं सकता।
नीलम शर्मा