गजल
इस सरबती बदन को जरा दिखा दे
मेरे तन मन मे जरा आग लगा दे
मैं साथी उस मेहखाने में क्यो जाऊँ
तुम मुझे यही जरा आँखो से पिला दो
मन मेरा बोझिल सा हो रहा है साथी
तुम मेरे मन को जरा ढाढ़स बांध दो
हुबहू पागल सा हो रहा है मेरा दिल
इस दिल को जरा सा सबर दिला दो
चाहत नुमाइश सी बिल्कुल भी नही है
तुम जरा इसको मेरी इबादत बना दो
उस बिन कैसे हँसता रहूँ ए मेरे मोला
मेरे दिल मे जरा कोई मीरा जगा दो
मिलन की तिश्नगी बहुत ज्यादा है साथी
जरा मुझसे मिल कर इसे बुझा दो
गर कोई खता ‘ऋषभ’ ने की है ‘महक’
तो गुमसुम न रहो मुझे कोई भी सजा दो