गजल
तिरही ग़ज़ल
मापनी-२१२२ २१२२ २१२
काफिया-आना
रदीफ़- चाहिए
दर्द को दिल में छिपाना चाहिए।
अश्क आँखों में न आना चाहिए।
ज़ख्म उल्फ़त में मिले उपहार से
हर सितम को आजमाना चाहिए।
टूट दर्पण के हँसे टुकड़े सभी
दिल फ़रेबी का लजाना चाहिए।
ढूँढ़ लेती याद तेरी है मुझे
मकबरा दिल का बनाना चाहिए।
रख चिरागे याद,रजनी द्वार पर
रोशनी कर मुस्कुराना चाहिए।
डॉ रजनी अग्रवाल”वाग्देवी रत्ना”
ग़ज़ल
मापनी-1222 1222 1222 1222
काफ़िया-ता
रदीफ़-है
बरसते हुस्न से पूछो दिवाना क्यों मचलता है।
छलकते जाम से पूछो समंदर क्यों बहकता है।
कभी मंदिर कभी मसजिद किया है शान से सजदा
पहन खूनी लिबासों को दरिंदा क्यों कुचलता है।
चले जब काफ़िला लेकर कफ़न बाँधे मुहोब्बत का
उजाड़ी प्यार की बस्ती कलेजा क्यों दहलता है।
ज़मीं ज़न्नत हमारी है यही काशी यही काबा
सिसकती मातृ से पूछो ये दामन क्यों महकता है।
“कहाँ इंकार करता हूँ”
बहर- १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
रदीफ़ करती हूँ
काफ़िया- आर
सुनाके हाल दिल का आपसे इकरार करती हूँ।
मुहब्बत है अजी कब आपसे इंकार करती हूँ।
बसाया ख्वाब आँखों में तसव्वुर आपका देखा
लुटाया चैन दिल हारी सनम स्वीकार करती हूँ।
पिलाए जाम अधरों ने सनम की प्रीत बन करके
किया मदहोश प्यालों ने सजन इज़हार करती हूँ।
गिराए केश गालों पे झटक के हुस्न का जलवा
बुझाई प्यास सीने की बलम से प्यार करती हूँ।
बसे दिल में बने धड़कन सुनाई राग साँसों ने
समाई तान रग-रग में समां गुलज़ार करती हूँ।
मनाती टूट कर ‘रजनी’ न रूँठो आप यूँ हमसे
चले आओ करो अब माफ़ ना तकरार करती हूँ।
डॉ.रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
“कहाँ इंकार करती हूँ”
*****************
बहर- १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
रदीफ़ करती हूँ
काफ़िया- आर
सुनाके हाल दिल का आपसे इकरार करती हूँ।
मुहब्बत है अजी कब आपसे इंकार करती हूँ।
बसाया ख्वाब आँखों में तसव्वुर आपका देखा
लुटाया चैन दिल हारी सनम स्वीकार करती हूँ।
पिलाए जाम अधरों ने सनम की प्रीत बन करके
किया मदहोश प्यालों ने सजन इज़हार करती हूँ।
गिराए केश गालों पे झटक के हुस्न का जलवा
बुझाई प्यास सीने की बलम से प्यार करती हूँ।
बसे दिल में बने धड़कन सुनाई राग साँसों ने
समाई तान रग-रग में समां गुलज़ार करती हूँ।
मनाती टूट कर ‘रजनी’ न रूँठो आप यूँ हमसे
चले आओ करो अब माफ़ ना तकरार करती हूँ।
डॉ.रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
‘ये दामन क्यों महकता है’
********************
बरसते हुस्न से पूछो दिवाना क्यों मचलता है।
छलकते जाम से पूछो समंदर क्यों बहकता है।
दिलों में राज़ दफ़ना कर सुरों के साज छेड़े हैं।
परिंदा जाति बिसरा कर गगन में क्यों चहकता है।
कभी मंदिर कभी मसजिद किया है शान से सजदा
पहन खूनी लिबासों को दरिंदा क्यों कुचलता है।
चले जब काफ़िला लेकर कफ़न बाँधे मुहोब्बत का
उजाड़ी प्यार की बस्ती कलेजा क्यों दहलता है।
ज़मीं ज़न्नत हमारी है यही काशी यही काबा
सिसकती मातृ से पूछो ये दामन क्यों महकता है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
काफ़िया- आ
रदीफ़-देखते देखते
बह्र-212 212 212 212
बेवफ़ा
********
इश्क उनसे हुआ देखते देखते।
हुस्न पर मर मिटा देखते देखते।
कातिलाना अदा रोग देकर गई
बेख़बर फ़िर रहा देखते देखते।
गैर के साथ रिश्ता बना प्यार का
दे गई वो दग़ा देखते देखते।
मैं हक़ीकत न समझा हुई देर थी
घाव दिल पर लगा देखते देखते।
छोड़ जाते ये गलियाँ मगर क्या करें
जाम ग़म का पिया देखते देखते।
थी दवा भी वही ज़ख्म जिसने दिया
मैं फ़ना हो गया देखते देखते।
आज “रजनी” कहे जीना’ दुश्वार है
क्यों जनाजा उठा देखते देखते?
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
“कहाँ इंकार करती हूँ”
*****************
बहर- १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
रदीफ़ करती हूँ
काफ़िया- आर
सुनाके हाल दिल का आपसे इकरार करती हूँ।
मुहब्बत है अजी कब आपसे इंकार करती हूँ।
बसाया ख्वाब आँखों में तसव्वुर आपका देखा
लुटाया चैन दिल हारी सनम स्वीकार करती हूँ।
पिलाए जाम अधरों ने अधर से प्रीत बन करके
किया मदहोश प्यालों ने सजन इज़हार करती हूँ।
गिराए केश गालों पे झटक के हुस्न का जलवा
बुझाई प्यास सीने की बलम से प्यार करती हूँ।
बसे दिल में बने धड़कन सुनाई राग साँसों ने
समाई तान रग-रग में समाँ गुलज़ार करती हूँ।
मनाती टूट कर ‘रजनी’ न रूँठो आप यूँ हमसे
चले आओ करो अब माफ़ ना तकरार करती हूँ।
डॉ.रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
बह्र-1222 1222 1222 1222
काफ़िया-आते
रदीफ़-हैं
ग़रीबों की न पूछो जात आँसू ये बहाते हैं।
छुपाकर ज़ख़्म अपनों से नज़र उनसे चुराते हैं।
पड़ा जब भूख से पाला लुटे तब ख्वाब बचपन के
लिए खाली कटोरा हाथ में इज़्ज़त गँवाते हैं।
निचोड़ा अर्थ ने इनको मिली जूठन ज़माने की
तरसते ये निवाले को नहीं छाले गिनाते हैं।
किया सौदा मुहब्बत का अमीरी ने यहाँ देखो
मिलाकर ख़ाक में हस्ती गरीबी को चिढ़ाते हैं।
लुटा दी आबरू अपनी यहाँ ममता बहुत रोई
बने हैं रहनुमा जो भी वही नश्तर चलाते हैं।
सियासत खेलती है खेल ‘रजनी’ क्या मिला इनको
ज़माने से मिली नफ़रत अजी ये मुस्कुराते हैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी
बह्र-2122 1212 22
काफ़िया-ओं
रदीफ़-में
रोज़ आते रहे ख़्यालों में।
गुल महकते रहे किताबों में।
मुस्कुराने का’ दौर आया है
गीत छेड़ा गया बहारों में।
ये मुलाकात बस बहाना है
बात होती रही इशारों में।
हुस्न का नूर क्या कहूँ यारों
फूल महका हुआ फ़िजाओं में।
ज़ुल्फ़ में कैद चाँद सहमा सा
छाँव पाता छुपा घटाओं में।
मैं बहकता रहा मुहब्बत में
वो समाते रहे निगाहों में।
जाम अधरों से पी रहा “रजनी”
ज़िक्र है आपका दिवानों में।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
बह्र-2122 1212 22
काफ़िया-ओं
रदीफ़-में
“मुहब्बत”
*********
रोज़ आते रहे ख़्यालों में।
गुल महकते रहे किताबों में।
मुस्कुराने का’ दौर आया है
गीत छेड़ा गया बहारों में।
ये मुलाकात बस बहाना है
बात होती रही इशारों में।
हुस्न का नूर क्या कहूँ यारों
फूल महका हुआ फ़िजाओं में।
ज़ुल्फ़ में कैद चाँद सहमा सा
छाँव पाता छुपा घटाओं में।
मैं बहकता रहा मुहब्बत में
वो समाते रहे निगाहों में।
जाम अधरों से पी रहा “रजनी”
ज़िक्र है आपका दिवानों में।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
बह्र-1222 1222 1222 1222
काफ़िया-आते
रदीफ़-हैं
ग़रीबों की न पूछो जात किस्मत को लजाते हैं।
छुपाकर ज़ख़्म अपनों से नज़र उनसे चुराते हैं।
पड़ा जब भूख से पाला लुटे तब ख्वाब बचपन के
लिए खाली कटोरा हाथ में इज़्ज़त गँवाते हैं।
निचोड़ा अर्थ ने इनको मिली जूठन ज़माने की
तरसते ये निवाले को नहीं छाले गिनाते हैं।
किया सौदा मुहब्बत का अमीरी ने यहाँ देखो मिलाकर ख़ाक में हस्ती गरीबी को चिढ़ाते हैं।
लुटा दी आबरू अपनी यहाँ ममता बहुत रोई
बने हैं रहनुमा जो भी वही नश्तर चलाते हैं।
सियासत खेलती है खेल ‘रजनी’ क्या मिला इनको
ज़माने से मिली नफ़रत अजी ये मुस्कुराते हैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी
भाषा
सजाना प्रीत अधरों पर मिटा तकरार की भाषा।
भुलाकर बैर अपनाना मृदुल उद्गार की भाषा।
किया ज़ख्मी ज़माने ने यहाँ अपने हुए कातिल
बुझाना आग नफ़रत की सुना मनुहार की भाषा।
बने नासूर रिश्ते हैं चुभोए शूल अपनों ने
लगाना नेह की मरहम जता अधिकार की भाषा।
छलावा कर रही दुनिया यहाँ हर दिल फ़रेबी है
नहीं हम चाहते भू पर कहीं संहार की भाषा।
मुहब्बत ही इबादत है कहे ‘रजनी’ सुनो यारों
बहाना प्रेम की धारा लुटाकर प्यार की भाषा।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
बेरुखी”
रदीफ़–बैठे हैं
काफ़िया-आके
दिखाते बेरुखी चिलमन गिराके बैठे हैं ।
मिजाज़े बादलों सा रुख बनाके बैठे हैं।
नज़र में शोकियाँ दिखती अदा में उल्फ़त है गुलाबी हुस्न में काँटे बिछाके बैठे हैं।
कसूरे चाँद का क्या दाग मुख पे उसके है नकाबे हुस्न में जलवा छिपाके बैठे हैं।
सँजोए ख़्वाब नीले आसमाँ की बाहों में उड़े तन्हा यहाँ महफ़िल सजाके बैठे हैं।
मुझे ना तोड़ तू इतना किसी सी जुड़ जाऊँ कहा तो आसमाँ सिर पे उठाए बैठे हैं।
बुलाऊँ पास तो उनको बुलाऊँ मैं कैसे हिना की हसरतें पाँवों लगाके बैठे हैं।
वफ़ा की राह में खुद बेवफ़ाई की यारों उजाड़ा घर नई दुनिया बसाके बैठे हैं।
तुम्हारी बेखुदी ने आज ‘रजनी’ लूटा है सजाए मौत को दुल्हन बनाके बैठे हैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
ग़ज़ल
काफ़िया-आ
रदीफ़-वो क्या जाने
बह्र-2122 1212 22
दर्द का सिलसिला वो क्या जाने।
ज़िंदगी का मज़ा वो क्या जाने।
अश्क देकर गया जो आँखों में
आशिक़ी में वफ़ा वो क्या जाने।
जो न समझा मेरी ख़ुदाई को
ज़ख्म देता दुआ वो क्या जाने।
दे भरोसा ख़ता निभा ही गया
दर्द-उल्फ़त-सज़ा वो क्या जाने
बेवफाई मुझे रुलाके गई
रोग देता दवा वो क्या जाने।
हौंसले आज भी सलामत हैं
धूल में जो मिला वो क्या जाने।
आज साहिल को पा लिया ‘रजनी’
तैर ना जो सका वो क्या जाने।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
बह्र- 2122 2122 2122 212
काफ़िया- आना
रदीफ़-चाहिए
विषय- “बुढ़ापे की सौगात”
है बुढ़ापे का तकाज़ा दिल लगाना चाहिए।
धूल दर्पण पर जमीं उसको हटाना चाहिए।
भूल पाते हम नहीं गुज़रा ज़माना चाहकर
हर किसीको अब यहाँ कोई फ़साना चाहिए।
देख फिर रहमत मयस्सर आज इतनी कर ख़ुदा!
वक्त जैसा भी हो लेकिन मुस्कुराना चाहिए।
साल सैंतिस भी मिले छोटा मुझे तो क्या ग़िला
प्यार की प्यासी नज़र को आज़माना चाहिए।
ज़ुल्फ़ से बूँदें गिरीं तो इक मुसाफ़िर हँस दिया
दूसरे दिन छेड़ने को इक बहाना चाहिए।
लोग दिल को थामकर देखा करें जब रास्ता
इक भरोसा यार के दिल में जगाना चाहिए।
दिल्लगी में दिल अगर ये खो गया तो क्या हुआ
एक मौसम हम बुज़ुर्गों को सुहाना चाहिए।
इश्क शर्तों पे किया जाता नहीं ‘रजनी’ कभी
ता क़यामत रस्म उल्फ़त को निभाना चाहिए।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी
काफ़िया-आत
रदीफ़- करती है
बह्र- 1222 1222 1222 1222
हया से मुस्कुराकर वो नज़र से बात करती है।
पिला कर जाम नज़रों का सुहानी रात करती है।
बहारों से चुरा खुशबू लगाकर इत्र चंदन का
महकती वादियों में हुस्न की बरसात करती है।
घनेरी जु़ल्फ़ का साया घटा बन नूर पर छाया
शराबे-हुस्न उल्फ़त में कयामत मात करती है।
बला की शोखियाँ देखीं हटाकर जुल्फ़ का पहरा
चला खंजर निगाहों से अजब आघात करती है।
चमक खुद्दारी’ की मुख पर अधर से फूल झरते हैं
लबों पर साधकर चुप्पी बयाँ ज़ज़्बात करती है।
नज़र जब रूप पर पड़ती मैं’ ज़न्नत भूल जाता हूँ
मयकदा मरहबा रुख़्सार पुलकित गात करती है।
अदा भी क़ातिलाना है ज़फ़ा भी लूटती ‘रजनी’
मुहब्बत भी अता मुझको ग़ज़ब सौगात करती है।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
बह्र-
1222 1222 122
काफ़िया-आ
रदीफ़-करेंगे
तुम्हारी याद में रोया करेंगे।
समंदर आँख से छलका करेंगे।
फ़रेबी आइना भी हो गया है
बताओ किससे हम शिकवा करेंगे।
फ़कत अहसास बन रहना हमेशा
सुबह-ओ-शाम हम सज़दा करेंगे।
मिलोगे जब कभी तन्हाई में तुम
लिए आगोश में महका करेंगे।
निगाहों में बसाकर यार तुमको
तसव्वुर ख़्वाब में देखा करेंगे।
तुम्हारे ग़म को अपना ग़म समझकर
निभाएँगे वफ़ा वादा करेंगे।
कसम खाकर कहे ‘रजनी’ तुम्हारी
मुहब्बत को नहीं रुस्वा करेंगे।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
काफ़िया-आस
रदीफ़-बाक़ी है
बह्र-1222 1222 1222 1222
तरसता प्यार को तेरे मिलन की आस बाक़ी है।
जलाए दीप नयनों के सनम विश्वास बाक़ी है।
दिखा जब चाँद पूनम का लगा आगोश में तुम हो
गुज़ारी रात ख़्वाबों में अभी अहसास बाक़ी है।
बला की खूबसूरत हो अदा भी क़ातिलाना है
निगाहों में बसाकर भी ज़िगर की प्यास बाक़ी है।
तुम्हें जो देख लूँ जी भर नहीं मरने का’ ग़म मुझको
जनाज़े पे चली आना यही अरदास बाक़ी है।
चले दीदार को तरसे नहीं ‘रजनी’ बुलाना तुम
मुहब्बत का यही दस्तूर इक इतिहास बाक़ी है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
काफ़िया- अर
रदीफ़- जाऊँ मैं
बह्र-122 122 122 12/22
उतर प्रीत दरिया उबर जाऊँ मैं।
वफ़ा की महक से सँवर जाऊँ मैं।
नज़ारे अगर साथ दे दें मेरा
नहा चाँदनी में निखर जाऊँ मैं।
मुझे डूबने की इजाज़त मिले
यही वक्त है के ठहर जाऊँ मैं।
तुम्हें देख कर दिल मचलता है क्यों
निगाहें मिली हैं किधर जाऊँ मैं।
तमन्ना यही इश्क में मर मिटूँ
तुम्हीं तुम नज़र में जिधर जाऊँ मैं।
मुहब्बत मुझे रास आती नहीं
डरे दिल न फिर से बिखर जाऊँ मैं।
कहे आज ‘रजनी’ जो दो साथ तुम
मुहब्बत में’ हद से गुज़र जाऊँ मैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
काफ़िया-आ
रदीफ़-कौन है
वज़्न- 2122 2122 2122 212
ग़ज़ल
राग छेड़ी सुरमयी मुझको रिझाता कौन है।
गीत अधरों पे सजा मुझको बुलाता कौन है।
मैं पवन का मस्त झोंखा बादलों को चूमता
वादियों में फूल से खुशबू चुराता कौन है।
मुस्कुरा बचपन सलौना खेलता मैं आँगना
चाँद पानी में दिखा मुझको हँसाता कौन है।
सागरों के तट बनाता नित घरौंदा प्यार का
ओस हाथों में लिए मुझको सजाता कौन है।
शोखियाँ, मदहोशियाँ ज़ालिम अदाएँ छल गईं
दर्द सीने से लगा अपना बनाता कौन है।
अश्क आँखों से छलकते खार सागर हो गए
हुस्न क़ातिल बन गया मुझको सताता कौन है।
ताकयामत भूल से न भूल पाएँगे तुझे
ज़ख्म शूलों से चुभा मुझको रुलाता कौन है।
थक गयी हैं धड़कनें साँसें भी’ मद्धिम चल रहीं
बेवफ़ाई कर यहाँ हमको मनाता कौन है।
हो सके ‘रजनी’ खुशी से अश्क पीना सीख ले
हौसला रख दे दुआ रिश्ता निभाता कौन है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
“इंतिहाँ अब हो गई”
काफ़िया-आने
रदीफ़-आइए
वज़्न-2122 2122 2122 212
तोड़ खामोशी सनम मुझको रुलाने आइए।
है फ़रेबी यार उल्फ़त आज़माने आइए।
वादियों ने राग छेड़ा थम गई धड़कन मेरी
थरथराते लब मेरे खुशियाँ चुराने आइए।
दर्द उठ-उठ के तमन्ना प्यार की ताज़ा करे
इल्तिज़ा है रस्म-उल्फ़त को निभाने आइए।
ज़ख्म के नासूर से मरहम पिघलता जा रहा
कह रही तन्हाई फिर से लौ जलाने आइए।
तुम रहोगे तो सज़ा देते रहोगे उम्र भर
इंतिहाँ अब हो गई मुझको भुलाने आइए।
थाम लीं तन्हाइयाँ देंगी दग़ा न वो मुझे
मिट रहे अहसास ग़म को फिर जगाने आइए।
और कोई ज़ुल्म “रजनी” क्या सताएगा मुझे
हसरतों का एक दिन मातम मनाने आइए।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना”
“अहसास बाक़ी है”
तरसता प्यार को तेरे मिलन की आस बाक़ी है।
जलाए दीप नयनों के सनम विश्वास बाक़ी है।
दिखा जब चाँद पूनम का लगा आगोश में तुम हो
गुज़ारी रात ख़्वाबों में अभी अहसास बाक़ी है।
बला की खूबसूरत हो अदा भी क़ातिलाना है
निगाहों में बसाकर भी ज़िगर की प्यास बाक़ी है।
तुम्हें जो देख लूँ जी भर नहीं मरने का’ ग़म मुझको
जनाज़े पे चली आना यही अरदास बाक़ी है।
चले दीदार को तरसे नहीं ‘रजनी’ बुलाना तुम
मुहब्बत का यही दस्तूर इक इतिहास बाक़ी है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
2122 1212 22/112
प्यार में जाँ निसार मत करना।
गैर पे एतबार मत करना।
इश्क का रंग मौसमों सा है
दिल कभी बेकरार मत करना।
पाक़ अस्मत तुम्हें बचानी है
ज़िंदगी दाग़दार मत करना।
वो समझ ले नहीं ख़ुदा ख़ुद को
मिन्नतें बार-बार मत करना।
बेवफ़ाई यहाँ मुनासिब है
बेरुख़ी इख़्तियार मत करना।
बेबसी बेख़ुदी से’ बढ़कर है
बुझदिलों में शुमार मत करना।
उम्र कटती नहीं हिसाबों में
आशिकी में उधार मत करना।
जग हँसेगा बहुत उदासी पे
तुम कभी शर्मसार मत करना।
याद ‘रजनी’ तुम्हें सताएगी
तुम कभी इंतज़ार मत करना।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
विषय-“दिल्लगी”
काफ़िया-इल
रदीफ़-नहीं समझा
वज्न-1222 1222 1222 1222
मुहब्बत आजमाती है हमें क़ाबिल नहीं समझा।
लुटाए ग़म दिवाने ने हमें संगदिल नहीं समझा।
कभी गज़रा लगा मेरी नहीं जुल्फें सँवारी हैं
बसा दी गैर की दुनिया हमें क़ाबिल नहीं समझा।
दिले धड़कन बना उसको सजाए गीत अधरों पर
ख़ुदा का शुक्र है उसने हमें महफ़िल नहीं समझा।
न पूछो यार सरहद प्यार की कितनी रुहानी है
किया घायल हज़ारों को हमें क़ातिल नहीं समझा।
डुबो दी प्यार की कश्ती मगर पतवार ना थामी
फ़ँसे मझदार में जाकर हमें साहिल नहीं समझा।
न समझे थे न समझेंगे मुहब्बत को कभी मेरी
चलाए तीर नश्तर से हमें हासिल नहीं समझा।
बरस बीते उन्हें ‘रजनी’ नहीं पैगाम आया है
लगा दीं पाँव में बेड़ी हमें मंज़िल नहीं समझा।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
क्या यही प्यार है’
काफ़िया-गी
रदीफ़-देखो
वज़्न-1222 1222 1222 1222
लुटाते प्यार ख़्वाबों में सनम की दिल्लगी देखो।
समंदर अश्क में डूबा बुझे न तिश्नगी देखो।
किया सजदा मुहब्बत में ख़ुदा माना जिसे हमने
उसी ज़ालिम फ़रेबी ने मिटादी ज़िंदगी देखो।
शिकायत क्या करूँ ए दिल मुहब्बत का तक़ाज़ा है
चिरागे याद से अपनी मिटाती तीरगी देखो।
मुझे वो ढूँढ़ लेता है सताता नित ख़्यालों में
चला आता बिना आहट किए आवारगी देखो।
मसल्सल चल रही साँसें उसी का ज़िक्र करती हूँ
जिसे मैं भूलना चाहूँ उसी से नग्मगी देखो।
रुलाता दर्द आँखों को ज़माना तेंग कसता है
बरसते मेघ जा परदेस क्यों नाराज़गी देखो।
रक़ीबों से निभा उल्फ़त ग़मे शादाब करते हैं
चुकाती कर्ज़ ‘रजनी’ है लबों की ताज़गी देखो।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
ग़ज़ल
बहर २१२२ १२१२ २२
काफ़िया- आ
रदीफ़- देना
ख्वाब आए नहीं जगा देना।
बुझ गया तो दिया जला देना।
रात आकर मुझे सताती है
नींद आती नहीं सुला देना।
गैर की बाँह का सहारा ले
आप उठना मुझे गिरा देना।
देखने हैं मुझे सितम तेरे
याद आकर मुझे भुला देना।
राज तुम तो कभी न ऐसी थी
मिट रहा हूँ मुझे दवा देना।
लोग बातें करें वफ़ाओं की
आग दरिया में’ भी लगा देना।
डॉ.रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
रोग उल्फ़त का लगा हमको जगाया रातभर।
जाम चितवन का चख़ा हमको सताया रातभर।
प्रीत की तहरीर नज़रों से बयाँ की आपने
वार सीने पर किया आशिक़ बनाया रातभर।
इश्क में बीमार होना बदनसीबी बन गई
आशिक़ी ने ज़ख्म दे हमको रुलाया रातभर।
है मुहब्बत गर गुनाह तो ग़म नहीं इस बात का
गैर की बाहों में जा रुतबा दिखाया रातभर।
दे दलीलों की दवा ‘रजनी’ न समझाओ हमें
हीर राँझा बन ज़माने को दिखाया रातभर।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
ख़्वाब आँखों को दिखा हमको जगाया आपने।
नूर चितवन का दिखा हमको सताया आपने।
ज़ुल्फ़ से रुख ढ़ाँक कर क्यों आपने पर्दा किया
शबनमी घूँघट गिरा हमको लुभाया आपने।
चूमकर आगोश में ले आप महकाते रहे
मखमली अहसास फिर हमको दिलाया आपने।
चाँदनी सी प्रीत रेशम सोमरस छलका रही
जाम अधरों से लगा हमको पिलाया आपने।
उठ रहे अरमान ‘रजनी’ इश्क में घायल किया
हुस्न का जलवा लुटा हमको जलाया आपने।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
2122 2122 212
आशिकों का क्या ज़माना आ गया।
दर्द सहकर मुस्कुराना आ गया।
वस्ल की उम्मीद में दूरी बढ़ी
सेज काँटों की बिछाना आ गया।
दे भरोसा प्यार में सौदा किया
प्यार किश्तों में चुकाना आ गया।
यार हम से बेवफ़ाई कर गया
ज़ख्म पर मलहम लगाना आ गया।
हसरतें दिल की जला दीं आपने
मोम सा ख़ुद को गलाना आ गया।
अश्क आँखों को मिले सौगात में
वार सह दिल को रुलाना आ गया।
लाइलाज़े इश्क में तड़पा किए
चोट खा खुद को मिटाना आ गया।
याद में आकर सताते रात-दिन
ख़्वाब रातों को सजाना आ गया।
क्या शिकायत आपसे ‘रजनी’ करे
गैर की बस्ती बसाना आ गया।
काफ़िया-आना
रदीफ़-हो गया
वज़्न-2122 2122 2122 212
हमसफ़र का साथ जीने का ठिकाना हो गया।
बाँट लीं तन्हाइयाँ ये दिल दिवाना हो गया।
प्रीत अधरों पे सजा मुझको हँसाया रातदिन
फूल सा दिल खिल उठा मौसम सुहाना हो गया।
जानते थे दिल लगाके कुछ सुकूँ मिल जायगा
दास्ताने ग़म भुलाके मुस्कुराना हो गया।
बाँह में भर वस्ल की दूरी मिटा दीं आपने
पा मुकम्मल ज़िंदगी उल्फ़त निभाना हो गया।
भा गया दिल का लगाना झूमके ‘रजनी’ कहे
पा सनम को अब इबादत का बहाना हो गया।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
काफ़िया-ई
रदीफ़-नहीं आती
2122 1212 22
आँख रोती नमी नहीं आती।
बेवफ़ा है खुशी नहीं आती।
रौंद के ज़िस्म को मसल डाला
होठ पे अब हँसी नहीं आती।
शाख से फूल टूट के बिखरे
ठूँठ पे ताज़गी नहीं आती।
बेबसी साथ को यहाँ तरसे
ग़म सताते कमी नहीं आती।
टूट के आसमान भी रोया
द्वार पे चाँदनी नहीं आती।
प्यार दफ़ना दिया दिवारों में
याद तेरी कभी नहीं आती।
कौन कहता कि रजनी’ ज़िंदा है
लौट के ज़िंदगी नहीं आती।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
“बेबसी”
*******
छिन गईं खुशियाँ चमन लूटा लगा।
आसमाँ भू पर गिरा ऐसा लगा।
नफ़रतों के बीज इतने बो दिए
बेरहम पतझड़ समाँ सारा लगा।
बेबसी सुनकर रुँआसी रह गई
दर्द का भी साथ अब छूटा लगा।
हो गई जब ज़िंदगी भी बेवफ़ा
मुस्कुराता आइना झूठा लगा।
जब ज़खीरा याद का पत्थर हुआ
मिट गए जज़्बात सब टूटा लगा।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
‘मुहब्बत’
काफ़िया-ओं
रदीफ़-से
वज़्न- 1222 1222 1222 1222
किया क़ातिल निगाहों ने मिलीं जब ये निगाहों से।
मुहब्बत हो गई हमको तुम्हारी इन अदाओं से।
सुनाने जब लगे तुम बज़्म में आकर ग़ज़ल अपनी
पढ़ी थीं शायरी कितनी चुराके इन किताबों से।
उलझती ज़ुल्फ़ जब देखीं तसव्वुर पर तरस आया
निभाई दुश्मनी हमने घिरी काली घटाओं से।
बहुत बेचैन हैं अरमाँ लगाने को गले तुमको
तुम्हारा प्यार पाऊँगा इबादत में दुआओं से।
समेटे शाम आँचल में चली आओ पनाहों में
भरूँ आगोश में यौवन नहीं डरता ख़ताओं से।
चरागे मैं मुहब्बत के जलाऊँगा यहाँ जलकर
उजाले ज़िंदगी में रोशनी देंगे सदाओं से।
अगर तुम मुस्कुरा कर बेवफ़ाई भी करो ‘रजनी’
उठा लेंगे अजी हम लुत्फ़ हँसकर इन जफ़ाओं से।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
गोपालदास नीरज को समर्पित ग़ज़ल-
काफ़िया-ईत
रदीफ़-लिख दूँगी
वज़्न-1222 1222 1222 1222
तुम्हारी याद में नीरज नया एक गीत लिख दूँगी।
सँजोके आज सरगम में नया संगीत लिख दूँगी।
रचे हर भाव सौरभ में निहित अंतस विचारों में
समाकर रूप तन-मन में विरह की प्रीत लिख दूँगी।
करूँ श्रद्धा सुमन अर्पित सजल पूरित नयन वंदन
भगीरथ गीत गंगा के बनाकर जीत लिख दूँगी।
कलम-कागज़ उठा कर मैं उकेरूँ भाव शब्दों में
तुम्हें यादों में ज़िंदा रख जगत की रीत लिख दूँगी।
जलाए दीप राहों में तरसती आगमन को मैं
कहे ‘रजनी’ बनी शबरी तुम्हें मनमीत लिख दूँगी।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
काफ़िया-अता
रदीफ़-रहा
2122 2122 2122 212
दर्द आँखों से मेरी नासूर बन रिसता रहा।
याद में तकिया भिगो हर ज़ख्म को सहता रहा।
रौंदकर ख़ुदगर्ज़ दिल को खुद ख़ुदा बनकर जिए
गैर की महफिल सजाई आह मैं भरता रहा।
हसरतों में ज़िंदगी के इस सफ़र को काट कर
सोचकर अहसास उसका मैं ग़ज़ल लिखता रहा।
मुझ बिना जो जी न पाए बेवफ़ाई कर गए
मैं इबादत में सनम की आज तक झुकता रहा।
प्यार सीने में दफ़न कर राह में भटका किया
ख़्वाब नैनों में सजाए मैं सदा जलता रहा।
है बड़ी नासाज़ तबियत साँस चलती आखिरी
मुश्किलों के दौर में पीकर ज़हर हँसता रहा।
ज़िंदगी फिर रूँठ ‘रजनी’ लौट कर आती नहीं
मौत महबूबा बनी है मीत क्यों छलता रहा।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
काफ़िया-आन
रदीफ़-ए जाने ज़िगर
2122 2122 2122 212
मान से ज़्यादा मिला सम्मान ए जाने ज़िगर।
हो गए पूरे सभी अरमान ए जाने ज़िगर।
ज़िंदगी में शख़्सियत थी कुछ सवालों से घिरी
आज लगता बन गया धनवान ए जाने ज़िगर।
हुस्न के आगोश में पाई नई अल्हड़ सहर
भूल बैठा इश्क में ईमान ए जाने ज़िगर।
ज़िंदगी के रंज़ोगम से अब नहीं कोई गिला
हो गया खुद आप पर कुर्बान ए जाने ज़िगर।
रात लगती शरबती हसरत लगें मुझको जवाँ
मैकदा नज़रें बनीं सामान ए जाने ज़िगर।
दिल नहीं बाज़ार उल्फ़त का बिके यौवन जहाँ
इश्क ज़न्नत प्यार की अनुमान ए जाने ज़िगर।
ख़्वाहिशें ज़िंदा दफ़न थीं मन में ‘रजनी’ आज तक
थाम बाहें कर दिया अहसान ए जाने ज़िगर।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
काफ़िया-अता
रदीफ़- कह रहा अपनी कहानी
2122 2122 2122 212
राह वीरानी भटकता कह रहा अपनी कहानी।
रंज़ोग़म से मैं गुज़रता कह रहा अपनी कहानी।
रात-दिन आँसू बहाता नींद ना आती मुझे
प्यार पाने को मचलता कह रहा अपनी कहानी।
मैं रहा ख़ामोश अक़सर वो ज़रा मगरूर सी
प्रेम नैनों से बरसता कह रहा अपनी कहानी।
ग़ैर की होकर बनाए फ़ासले थे दरमियाँ
दर्द सीने में पनपता कह रहा अपनी कहानी।
पढ़ लिया हर हर्फ़ मैंने आज उसकी जीश्त का
मैं वफ़ाई को तड़पता कह रहा अपनी कहानी।
ज़ख्म ज़ालिम से मिले रुस्वाइयों के दौर में
कारवाँ को मैं तरसता कह रहा अपनी कहानी।
दूर तक कोई शज़र ‘रजनी’ नज़र आता नहीं
छाँव की उम्मीद करता कह रहा अपनी कहानी।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
काफ़िया-आर
रदीफ़-बिकते हैं
अजब मालिक की दुनिया है यहाँ किरदार बिकते हैं।
कहीं सत्ता कहीं ईमान औ व्यापार बिकते हैं।
पड़ी हैं बेचनी सांसें कभी खुशियाँ नहीं देखीं
निवाले को तरसते जो सरे बाज़ार बिकते हैं।
लगाई लाज की बोली निचोड़ा भूख ने जिसको
लुटाया ज़िस्म बहनों ने वहाँ रुख़सार बिकते हैं।
पहन ईमान का चोला फ़रेबी रंग बदलते हैं
वही इस पार बिकते हैं वही उस पार बिकते हैं।
सियासी दौर में ‘रजनी’ लड़ाई कुर्सियों की है
हमारे रहनुमाओं के यहाँ व्यवहार बिकते हैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
“तुम्हारे बिन”
तुम्हारी याद के साए सताते हैं चले आओ
हमें जीने नहीं देते रुलाते हैं चले आओ।
तुम्हारे गेसुओं में पा पनाह हर शाम गुज़री है
फ़लक से चाँद तारे मुँह चिढ़ाते हैं चले आओ।
तुम्हारे बिन फ़िज़ाएँ अब हमें बेरंग लगती हैं
चुराकर फूल की खुशबू लुटाते हैं चले आओ।
तुम्हारी आहटों को हम पलक पर आसरा देते
गुलों की मखमली चादर बिछाते हैं चले आओ।
नहीं पाकर कोई संदेश उल्फ़त लड़खड़ाती है
रुँआसे ख़्वाब नींदों में जगाते हैं चले आओ।
बहाकर अश्क आँखों से भिगोया रातभर तकिया
लिए ख़त हाथ में हम बुदबुदाते हैं चले आओ।
तुम्हारे बिन गुज़ारी ज़िंदगी तन्हा ज़माने में
सुनो ‘रजनी’ तड़प कर हम बुलाते हैं चले आओ।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
ज़माने बीत जाते हैं
कभी उल्फ़त निभाने में ज़माने बीत जाते हैं।
कभी मिलने मिलाने में ज़माने बीत जाते हैं।
कभी वो दर्द देते हैं कभी नासूर बनते हैं
कभी मरहम लगाने में ज़माने बीत जाते हैं।
कभी ऊँची हवेली में मिली दौलत रुलाती है
कभी दौलत कमाने में ज़माने बीत जाते हैं।
कभी वोटिंग किसी के नाम पर सत्ता दिलाती है
कभी सत्ता बनाने में ज़माने बीत जाते हैं।
कभी चाँदी चढ़े रिश्ते यहाँ किश्तें भुनाते हैं
कभी किश्तें चुकाने में ज़माने बीत जाते हैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
‘हसीन ख्वाब’
खत पढ़े दो-चार हमने ख़्वाब आया रातभर।
संगमरमर हुस्न ने हमको जगाया रातभर।
सेज उल्फ़त की सजी क़ातिल अदाएँ छल गईं
हुस्न की अठखेलियों ने दिल लुभाया रातभर।
क्या ग़ज़ब की शोखियाँ मदहोशियाँ आईं नज़र
प्रीत नैनों में बसा मुझको रिझाया रातभर।
मैं ठगा सा रह गया ज़ुल्फें हटा रुख़सार से
बेनक़ाबी हुस्न ने मुझको पिलाया रातभर।
रू-ब-रू हो मरहबा का हाथ ने दामन छुआ
बच न पाया हुस्न से ‘रजनी’ जलाया रातभर।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
काफ़िया-आन
रदीफ़-ए जाने ज़िगर
2122 2122 2122 212
मान से ज़्यादा मिला सम्मान ए जाने ज़िगर।
हो गए पूरे सभी अरमान ए जाने ज़िगर।
ज़िंदगी में शख़्सियत थी कुछ सवालों से घिरी
आज लगता बन गया धनवान ए जाने ज़िगर।
हुस्न के आगोश में पाई नई अल्हड़ सहर
भूल बैठा इश्क में ईमान ए जाने ज़िगर।
ज़िंदगी के रंज़ोगम से अब नहीं कोई गिला
हो गया खुद आप पर कुर्बान ए जाने ज़िगर।
रात लगती शरबती हसरत लगें मुझको जवाँ
मैकदा नज़रें बनीं सामान ए जाने ज़िगर।
दिल नहीं बाज़ार उल्फ़त का बिके यौवन जहाँ
इश्क ज़न्नत प्यार की अनुमान ए जाने ज़िगर।
ख़्वाहिशें ज़िंदा दफ़न थीं मन में ‘रजनी’ आज तक
थाम बाहें कर दिया अहसान ए जाने ज़िगर।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
“जाने ज़िगर”
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मान से ज़्यादा मिला सम्मान ए जाने ज़िगर।
हो गए पूरे सभी अरमान ए जाने ज़िगर।
ज़िंदगी में शख़्सियत थी कुछ सवालों से घिरी
आज लगता बन गया धनवान ए जाने ज़िगर।
हुस्न के आगोश में पाई नई अल्हड़ सहर
भूल बैठा इश्क में ईमान ए जाने ज़िगर।
ज़िंदगी के रंजोग़म से अब नहीं कोई गिला
हो गया खुद आप पर कुर्बान ए जाने ज़िगर।
रात लगती शरबती हसरत लगें मुझको जवाँ
मैकदा नज़रें बनीं सामान ए जाने ज़िगर।
दिल नहीं बाज़ार उल्फ़त का बिके यौवन जहाँ
इश्क ज़न्नत प्यार की अनुमान ए जाने ज़िगर।
ख़्वाहिशें ज़िंदा दफ़न थीं मन में ‘रजनी’ आज तक
थाम बाहें कर दिया अहसान ए जाने ज़िगर।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
काफ़िया-अता
रदीफ़-रहा
2122 2122 2122 212
दर्द आँखों से मेरी नासूर बन रिसता रहा।
याद में तकिया भिगो हर ज़ख्म को सहता रहा।
रौंदकर ख़ुदगर्ज़ दिल को खुद ख़ुदा बनकर जिए
गैर की महफिल सजाई आह मैं भरता रहा।
हसरतों में ज़िंदगी के इस सफ़र को काट कर
सोचकर अहसास उसका मैं ग़ज़ल लिखता रहा।
मुझ बिना जो जी न पाए बेवफ़ाई कर गए
मैं इबादत में सनम की आज तक झुकता रहा।
प्यार सीने में दफ़न कर राह में भटका किया
ख़्वाब नैनों में सजाए मैं सदा जलता रहा।
है बड़ी नासाज़ तबियत साँस चलती आखिरी
मुश्किलों के दौर में पीकर ज़हर हँसता रहा।
ज़िंदगी फिर रूँठ ‘रजनी’ लौट कर आती नहीं
मौत महबूबा बनी है मीत क्यों छलता रहा।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
‘मुहब्बत’
काफ़िया-ओं
रदीफ़-से
वज़्न- 1222 1222 1222 1222
किया क़ातिल निगाहों ने मिलीं जब ये निगाहों से।
मुहब्बत हो गई हमको तुम्हारी इन अदाओं से।
सुनाने जब लगे तुम बज़्म में आकर ग़ज़ल अपनी
पढ़ी थीं शायरी कितनी चुराके इन किताबों से।
उलझती ज़ुल्फ़ जब देखीं तसव्वुर पर तरस आया
निभाई दुश्मनी हमने घिरी काली घटाओं से।
बहुत बेचैन हैं अरमाँ लगाने को गले तुमको
तुम्हारा प्यार पाऊँगा इबादत में दुआओं से।
समेटे शाम आँचल में चली आओ पनाहों में
भरूँ आगोश में यौवन नहीं डरता ख़ताओं से।
चरागे मैं मुहब्बत के जलाऊँगा यहाँ जलकर
उजाले ज़िंदगी में रोशनी देंगे सदाओं से।
अगर तुम मुस्कुरा कर बेवफ़ाई भी करो ‘रजनी’
उठा लेंगे अजी हम लुत्फ़ हँसकर इन जफ़ाओं से।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
1222 1222 1222 1222
काफ़िया- आर
रदीफ़- हो जाना
बहुत महँगा पड़ा मुुझको सनम से प्यार हो जाना।
मुहब्बत में खुला व्यापार -औ-अख़बार हो जाना।
निगाहें जब मिलीं उनसे नज़र में बेरुख़ी आई
समझ पाई नहीं मैं इश्क में तकरार हो जाना।
नहीं चाहा कभी सुनना समझना बात को मेरी
बड़ा आसान समझे प्यार में तलवार हो जाना।
लगाकर तोहमतें मुझ पे किया बदनाम महफ़िल में
सहूँ कैसे बताओ तुम जिगर पे वार हो जाना।
चलाकर तीर तानों के मिटा दीं हसरतें मेरी
नहीं भाता किसी भी हाल में मझदार हो जाना।
नमक छिड़का किए उन पर दिए जो ज़ख्म उल्फ़त में
सताता है हमें दिन-रात उनका ख़ार हो जाना।
फ़ना अरमान कर डाले धुआँ अब भी बकाया है।
भुलाए से नहीं भूली कभी बीमार हो जाना।
अँधेरी रात तन्हाई रुलाती बेबसी मुझको
नहीं मंजूर मुझको ज़िंदगी दुश्वार हो जाना।
यकीं कैसे करे ‘रजनी’ चलें वो साथ गैरों के
अजब है कशमकश दिल में चला एतबार जाना है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
1222 1222 1222 1222
काफ़िया-आ
रदीफ़-दूँ क्या
दिखाते आईना मुझको इन्हें ख़ुद से मिला दूँ क्या।
मुख़ौटे में छिपे फिरते कहो दर्पण दिखा दूँ क्या।
हुआ टुकड़े घरौंदा काँच का तुमने तराशा था
चुभन से काँपते जग को बना मुज़रिम सज़ा दूँ क्या।
ख़बर झूठी छपाकर जो गिनें ख़ुद को शरीफ़ों में
उठा पर्दा हक़ीक़त से कहो नज़रें झुका दूँ क्या।
तिजोरी भर रहे अपनी बने ख़ुद्दार फिरते हैं
कहो सच बोलकर इनकी बनी सत्ता गिरा दूँ क्या।
जलाकर बस्तियाँ रौशन करें अपना जहां देखो
हवा का रुख बदल दीपक कहो इनका बुझा दूँ क्या।
चढ़ा चश्मे तिलस्मी ये निहारें मोहिनी सूरत
गिरा तिनका फ़रेबी आँख में इनको रुला दूँ क्या।
लकीरें हाथ की पढ़कर भरोसे भाग्य के बैठे
फ़लक से तोड़ तारों को सबक श्रम का सिखा दूँ क्या।
घटाते मुल्क का गौरव अनैतिक काम करते हैं
झुकाकर शीश कदमों में गिराके रज चटा दूँ क्या।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
‘मुहब्बत’
काफ़िया-ओं
रदीफ़-से
वज़्न- 1222 1222 1222 1222
किया क़ातिल निगाहों ने मिलीं जब ये निगाहों से।
मुहब्बत हो गई हमको तुम्हारी इन अदाओं से।
सुनाने जब लगे तुम बज़्म में आकर ग़ज़ल अपनी
पढ़ी थीं शायरी कितनी चुराके इन किताबों से।
उलझती ज़ुल्फ़ जब देखीं तसव्वुर पर तरस आया
निभाई दुश्मनी हमने घिरी काली घटाओं से।
बहुत बेचैन हैं अरमाँ लगाने को गले तुमको
तुम्हारा प्यार पाऊँगा इबादत में दुआओं से।
समेटे शाम आँचल में चली आओ पनाहों में
भरूँ आगोश में यौवन नहीं डरता ख़ताओं से।
चरागे मैं मुहब्बत के जलाऊँगा यहाँ जलकर
उजाले ज़िंदगी में रोशनी देंगे सदाओं से।
अगर तुम मुस्कुरा कर बेवफ़ाई भी करो ‘रजनी’
उठा लेंगे अजी हम लुत्फ़ हँसकर इन जफ़ाओं से।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)
प्यार का जज़्बा जगाकर खुद हमीं को छल गये।
ज़ख्म पाए जब वफ़ा में ख्वाब सारे जल गए।
कौन देगा कब दग़ा ये जान पाए ना कभी
बिन ख़ता के दी सज़ा मौसम सुहाने टल गए।
मानकर जिनको खुदा करते इबादत हम रहे
राह-ए-उल्फ़त फ़कत में छोड़कर क्यों कल गये।
तोड़ सौ टुकड़े किए दिल काँच का मेरा समझ
बेवफ़ाई का ज़हर पी घूँट सारे खल गये।
पास उनके था वही उनसे मिला ‘रजनी’ यहाँ
झेल नश्तर प्यार में ग़म आँसुओं में ढल गये।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
212 1222 212 1222
“भूल नहीं पाते हैं”
दर्द को छुपा जग से होंठ मुस्कुराते हैं।
बेवफ़ा सनम हमको नींद में सताते हैं।
याद जब करूँ लम्हे टूट कर बिखर जाती
कोसकर जवाँ मौसम अश्क छलक जाते हैं।
होश में रहूँ कैसे होश मैं गँवा बैठी
चैन ,अमन लूटा मेरा बात अब बनाते हैं।
दरमियां रहें न दूरी कोशिशें बहुत की थीं
बेखुदी जता अपनी फ़ासले बढ़ाते हैं।
चाहतें हमारी थीं साथ हम निभाएँगे
बाँह गैर की थामे आँख वो चुराते हैं?
उठ रही कसक दिल में छा रहा धुआँ सा है
हसरतें मिटा मेरी ख्वाब वो जलाते हैं
बेरहम सितमगर ने दिल मिरा दुखाया है
मानकर खुदा उनको भूल नहीं पाते हैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
“दिलकश यौवन”
1222 1222 1222 1222
नज़ाकत शोखियों ने रूप यौवन का सँवारा है।
तुम्हारी सादगी के हुस्न ने चंदा नकारा है।
खिली मुस्कान अधरों पर छटा जैसे बहारों की
सुनी धड़कन जुनूने इश्क ने हमको पुकारा है।
घनेरी जुल्फ़ मँडराकर करे रुखसार का चुंबन
नयन के तीर से घायल यकीनन दिल हमारा है।
चुरा खुशबू बदन से क्यारियाँ महकीं गुलाबों की
मिजाज़े नर्म दिल ने आब चेहरे का निखारा है।
खनकती चूड़ियाँ नींदें चुरातीं छेड़ कर सरगम
गरम अहसास सांसों का बना मेरा सहारा है।
टपकतीं केश से बूँदें लगें शबनम फ़िज़ाओं में
किया श्रृंगार धरती का बड़ा दिलकश नज़ारा है।
सुनहरे ख्वाब आँखों में सजाते सुरमयी महफ़िल
लिए अरमान का दर्पण तुम्हें ‘रजनी’ निहारा है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना
नहीं कुछ होश बाक़ी है
छिपाए ज़ख्म सीने में सदा हम मुस्कुराते हैं।
सनम से बेवफ़ाई पा अदब से सिर झुकाते हैं।
पढ़े ख़त आपके जब से हुए बेताब तब से हैं
नहीं कुछ होश बाक़ी है अँधेरे आज़माते हैं।
बरस जातीं कभी आँखें मुहब्बत में सज़ा पाकर
ज़हर का घूँट पीकर हम नई महफ़िल सजाते हैं।
मिली तौहीन उल्फ़त में उसे किस्मत समझकर हम
भटकते मंज़िलों की चाह में खुद चोट खाते हैं।
मिला जो दर्द तुमसे है उसे ईनाम माना है
वफ़ा के नाम पर हर रोज़ हम किश्तें चुकाते हैं।
मिला पतझड़ यहाँ मौसम खिज़ा के फूल मन भाए
बसंती मन बना अपना नए नग़मे सुनाते हैं।
मुहब्बत की सियासत देख के ‘रजनी’ सँभल जाओ
उदासी को मिटा उम्मीद का दीपक जलाते हैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
गैर के साथ गए मेरी कमी भूल गए।
जो हमें याद रहे आज वही भूल गए।
घूमते आप फिरे रोज़ नई महफ़िल में
दी सज़ा आपने खुद बात ख़री भूल गए।
आपकी याद उदासी बनी इन आँखों की
प्यार का रोग लगा हम तो हँसी भूल गए।
बेरुखी सह न सके आज जिएँ हम कैसे
ग़म दिए आपने उल्फ़त जो मिली भूल गए।
है अजब इश्क जुदाई न सही जाए सनम
हसरतें आप यहीं दिल की रखी भूल गए।
उम्र भर आप सताएँगे हमें यादों में
आँख से ख्वाब चुरा आप नमी भूल गए।
ज़िंदगी आप बिना ‘रजनी’ गुज़ारे कैसे
रोज़ मिलते रहे जो आज गली भूल गए।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
“रस्म-उल्फ़त”
रूँठना भी है अदा उनको मनाना चाहिए।
फ़ासलों को दूर कर नज़दीक आना चाहिए।
मानकर अधिकार अपना की शिकायत गर कभी
माफ़ कर उनकी ख़ता को मुस्कुराना चाहिए।
तार वीणा का समझ क्यों तंज़ कसते आप हो
टूट जाएँ ना कभी रिश्ते बचाना चाहिए।
दाग़ औरों के दिखाने से नहीं कुछ फ़ायदा
ऐब अपने भी कभी खुद को गिनाना चाहिए।
इश्क में उल्फ़त उसूलों से परे है जान कर
सादगी से आशिक़ी में दिल लगाना चाहिए।
क्यों किया जाए यहाँ हलकान दिल हर बात में
आपसी रंजिश मिटा मिलना-मिलाना चाहिए।
कौनसी किसको लगी क्या बात ‘रजनी’ भूलकर
बन फ़रिश्ता रस्म-उल्फ़त को निभाना चाहिए।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
‘नसीहत’
अजब नादान उल्फ़त ने गढ़ी अपनी कहानी है।
लिखा हर हर्फ़ आँसू से ग़ज़ल ही तरजुमानी है।
अभी हर ज़ख्म गहरा है यहाँ ख़ूने तमन्ना का
जुनूने इश्क में घायल हुई ये ज़िंदगानी है।
क़हर तूफ़ान का टूटा मिला सैलाब अश्कों को
फ़ँसी मझधार में कश्ती उमड़ता सिर्फ़ पानी है।
कभी सावन सरीख़े जो लिपटते थे बहारों से
वही ये भूल बैठे हैं नहीं हर रुत जवानी है।
किया दिल चाक खंज़र से मुहब्बत नाम पे जिसने
हयाते पाल ग़म उसका नहीं किस्मत गँवानी है।
बना दी हसरतों को लाश ज़िंदा ही जला डाला
उन्हीं की ज़िंदगी में ख़ार भर नसीहत सिखानी है।
दिया दर्दे ज़िगर, दर्दे तमन्ना इश्क में जिसने
उसी को बेरुख़ी देकर अगन दिल की बुझानी है।
भुला तहज़ीब जो ‘रजनी’ शराफ़त को कुचलता है
उसे रुस्वाइयाँ देकर तुम्हें कीमत चुकानी है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)
ज़िंदगी बोझिल हुई है गुनगुनाना लाज़मी है।
रिस रहे रिश्ते यहाँ मरहम बनाना लाज़मी है।
गेसुओं से अब झरे शबनम नहीं रुख़सार पर
मोतियों से माँग धरती की सजाना लाज़मी है।
खो गईं नज़दीकियाँ जब ज़ख्म अपनों से मिले
प्यार की दरिया बहा नफ़रत मिटाना लाज़मी है।
गर्दिशे हालात ने तकदीर में लिख ठोकरें दीं
हसरतों का खून कर उल्फ़त निभाना लाज़मी है।
रात वीराने डराते काँपती परछाइयों से
भूल पतझड़ मौसमे-गुल को खिलाना लाज़मी है।
घूँट पी अपमान के हमने सही रुस्वाइयाँ हैं
फूल बन काँटे बिछे पथ के उठाना लाज़मी है।
दौर अज़माइश चला ‘रजनी’ सियासत हर तरफ़
ज्ञान की बाती लगा दीपक जलाना लाज़मी है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
“सुनाता हाले दिल अपना”
सुनाता हाले दिल अपना मगर सबसे छुपाना था।
तुझे मालूम है ए दिल बड़ा दिलकश फ़साना था।
छिड़ी है बात उल्फ़त की दबे अहसास जागे हैं
नहीं मैं भूलता उसको वही मेरा खज़ाना था।
बहुत खुशियाँ मिलीं मुझको सनम मासूम सा पाकर
मुहब्बत से भरा जीवन बना सावन सुहाना था।
छिपा था चाँद घूँघट में हटाया रेशमी पर्दा
बहारों के महकते ज़िस्म से यौवन चुराना था।
हुआ दीदार जब उसका किया का़तिल निगाहों ने
नवाज़ा हुस्न को मैंने रिवाज़ों को निभाना था।
तमन्ना मुख़्तसर को अब भरा आगोश में मैंने
अदब से चूम पलकों को मुझे उसको रिझाना था।
पिलाया आज अधरों ने अधर का जाम मतवाला
नहीं काबू रहा खुद पर उसे अपना बनाना था।
चढ़ी दीवानगी ऐसी रहा ना होश बाक़ी है
फ़रिश्ता बन मुझे ‘रजनी’ नहीं किस्सा सुनाना था।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
काफ़िया-आ
रदीफ़-करेंगे
तुम्हारी याद में रोया करेंगे।
समंदर आँख से छलका करेंगे।
फ़रेबी आइना भी हो गया है
बताओ किससे हम शिकवा करेंगे।
फ़कत अहसास बन रहना हमेशा
सुबह-ओ-शाम हम सज़दा करेंगे।
मिलोगे जब कभी तन्हाई में तुम
लिए आगोश में महका करेंगे।
निगाहों में बसाकर यार तुमको
तसव्वुर ख़्वाब में देखा करेंगे।
तुम्हारे ग़म को अपना ग़म समझकर
निभाएँगे वफ़ा वादा करेंगे।
कसम खाकर कहे ‘रजनी’ तुम्हारी
मुहब्बत को नहीं रुस्वा करेंगे।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
‘चुभन’
ज़िंदगी से शिकायत गिला कुछ नहीं।
दर्द ग़म के अलावा बचा कुछ नहीं।
आइने से हुई रू-ब-रू जब कभी
चाह के आशिक़ी में छुपा कुछ नहीं।
जीत कर हार आई उन्हीं के लिए
दे दुआ मुस्कुरा माँगना कुछ नहीं।
प्यार उन पर हमेशा लुटाती रही
ज़ुल्म कितने सहे पर कहा कुछ नहीं।
तंज कसते रहे वो सहा हम किए
मर्ज़ बढ़ता गया पर दवा कुछ नहीं।
ज़िंदगी लुट गई इश्क में बेवजह
ज़हर भी पी गई पर हुआ कुछ नहीं।
बात ही बात में फ़ासले बढ़ गए
बीच में अब हमारे बचा कुछ नहीं।
बेवफ़ा यार पर था भरोसा हमें
इस वफ़ा से बड़ी है वफ़ा कुछ नहीं।
उँगलियाँ उठ रही हैं हमारी तरफ़
कौन कहता है ‘रजनी’ चुभा कुछ नहीं।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
नहीं हो बाजुओं में दम वही कायर निकलते हैं।
जिन्हें परवाज़ पर हो नाज़ वो बे-पर निकलते हैं।
रहे भूखे नहीं दो जून की रोटी जुटा पाए
बचा ईमान को अपने यहाँ रहबर निकलते हैं।
इरादों में बुलंदी का जिन्हें अहसास होता है
वही तूफ़ान में कश्ती लिए अक्सर निकलते हैं।
मिटाकर रंज़-ग़म को ज़िंदगी की स्याह रातों से
किया आसान मुश्किल को वही हँसकर निकलते हैं।
दिखाते खौफ़ का आलम दरिंदे देश में घुसकर
लिए बारूद, गोले साथ में खंजर निकलते हैं।
तिरंगा हाथ में लेकर कफ़न बाँधे मुहब्बत का
यहाँ जाँबाज़ सरहद पर कसम खाकर निकलते हैं।
मुहब्बत की फ़िज़ाओं में मिलाके ज़हर क्या होगा
यहाँ साज़िश कुचलते रोज़ बाज़ीगर निकलते हैं।
न जाने ज़िंदगी ‘रजनी’ हमें क्यों आज़माती है
चुनौती को करें स्वीकार हम डटकर निकलते हैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
“दास्ताने इश्क”
इश्क नासूर बन कर उभर जायेगा।
दर्दे-ग़म आँसुओं में उतर जायेगा।
दास्ताँ हाले दिल की कभी तो सुनो
दर्द उठ-उठ के देखो सिहर जायेगा।
आप खुदगर्ज़ निकले न सोचा कभी
कैसे पतझड़ का मौसम सँवर जायेगा।
रंजो-ग़म पी गए ज़ख़्म भी सह लिए
इश्क मातम मनाने किधर जायेगा।
रात तन्हा उदासी रुलाएगी गर
दर्द ग़ज़लों में मेरी निखर जायेगा।
हुस्न क़ातिल बना लूट हसरत गया
दौर मुश्किल भले है गुज़र जायेगा।
ज़ुल्म कितना सतायेगा ‘रजनी’ हमें
एक दिन ज़ुल्म थक कर बिखर जायेगा।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
“ए ख़ुदा रहमत रहे”
मुफ़लिसी पे ए ख़ुदा तेरी सदा रहमत रहे।
भूख से मरते जनों के मुल्क़ में बरकत रहे।
चंद सिक्कों के लिए बिकता यहाँ इंसान है
मर गई इंसानियत ज़िंदा यहाँ सीरत रहे।
बाँट मजहब में वतन को भ्रष्ट सत्ता पल रही
दुश्मनों का साथ देने की नहीं नीयत रहे।
कस रहे हैं तंज पनपा कर दिलों में नफ़रतें
बढ़ चले हैवानियत ऐसी नहीं फ़ितरत रहे।
वारदातों का चलन ‘रजनी’ यहाँ दहशत भरा
काट बेड़ी बुझदिली की शौर्य की कीमत रहे।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
बेटी होना पाप नहीं कुकर्म सोच कराती है
मुस्कान खिली रौंदी कलियाँ दानवता हर्षाती है।
खींच बाहें मुँह दबाया हाथ बाँधे फिर डराकर
दानवी बन लूट लज्जा फेंक दी काया धरा पर।
रो रही कुदरत जमीं पर मृत अधर भी काँपते हैं,
देश की बेटी लुटी है लोग चोटें नापते हैं।
छीन खुशी घर आँगन की तन की कोमलता लूटी
कुंठित स्वर लाचार हुआ क्ष्म्य भाव समता झूठी।
रोकती बढ़ते कदम को मैं भयावित काँपती हूँ
हाथ दुर्योधन न छू ले मैं कलेजा ढ़ाँपती हूँ।
याद उस दुर्गंध की जब खुरदुरी जकड़न दिलातीं,
दहशती आलम डराता सूरतें धड़कन बढ़ातीं।
रात-दिन वहशी दरिंदे देखकर मैं चींखती हूँ,
हाथ गंदे पा बदन पर देह अपनी भींचती हूँ।
रात भर दीपक जला कर मन व्यथित चिंता झुलसती
रोष,घृणा,आक्रोश लिए हृदय में हिंसा धधकती।
आरोप सहे लोगों के सीता धरा समा बैठी
लुटा कर द्रोपदी निज लाज अपनों में लजा बैठी।
रास न आया था सतयुग कलयुग मुझे न भाया है।
सिसक आबरू भी कहती यही अहसास पाया है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी(उ. प्र.)
स्वरचित
“खामोश लब”
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हसरतें दिल में जगाकर वो कहानी दे गये।
दरमियां रख फ़ासले ग़म की निशानी दे गये।
हँस रहे हैं आज उल्फ़त को तमाशा जानकर
पा वफ़ा बेदर्द वो बातें सुहानी दे गये।
था यही अरमान उनके साथ बीते ज़िंदगी
ख़ार से भरकर हमें वो बदगुमानी दे गये।
सिलसिला दीवानगी का कर गया घायल हमें
ले सुकूं पतझड़ सरीखी ज़िंदगानी दे गये।
हो गये खामोश लब डँसती रहीं तन्हाइयाँ
छीन खुशियाँ दर्द लफ़्ज़ों की जुबानी दे गये।
आँधियाँ तक़दीर में लिख दीं फ़रेबी यार ने
लूट ख्वाहिश ख्वाब धुँधले आसमानी दे गये।
नाम पानी पे लिखा ‘रजनी’ मिटाकर चल दिये
इश्क में हमको सज़ा यादें पुरानी दे गये।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
बारिश
कँटीले तीर के खंजर चलाने आ गई बारिश।
तबाही का हमें मंज़र दिखाने आ गई बारिश।
लिपट कर ख़्वाहिशें दिल से फ़फ़क कर रो न पाईं थीं
तुम्हारी प्रीत का सुरमा बहाने आ गई बारिश।
कमी खलती रही दिल को जुबां खामोश है मेरी
भरे उन्माद रग-रग में रुलाने आ गई बारिश।
हवा का तेज़ झोंका ले उड़ा यादें जवानी की
ख़तों की सुर्ख स्याही को मिटाने आ गई बारिश।
नहीं छोड़ा खुशी का ज़ाइका दिल ख़ार कर डाला
ज़हर के घूँट होठों को पिलाने आ गई बारिश।
ग़मे सौगात पाकर चैन उल्फ़त में गँवा बैठे
बना अंगार हसरत को जलाने आ गई बारिश।
अमीरों के महल की रौनकें आबाद हैं ‘रजनी’
गरीबों के टपकते घर गिराने आ गई बारिश।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
धोखा
2122 1212 22/112
बस इसी बात का गिला मुझको।
हर कदम पर मिला दग़ा मुझको।
बेवफ़ा यार गैर सा निकला
दाग़ मेरे दिखा रहा मुझको।
खा गई प्यार में नज़र धोखा
वो गुनहगार मानता मुझको।
हसरतें राख हो गईं मेरी
दर्द ताउम्र ओढ़ना मुझको।
रास आई नहीं खुशी कोई
ज़िंदगी ने बहुत छला मुझको।
इश्क का रोग भी नहीं भाया
था न रफ़्तार का पता मुझको।
भूल जाती नहीं भुला पाई
ख्वाब में ख्वाब सा लगा मुझको।
रेत जैसे फ़िसल रहे लम्हे
याद उसने नहीं रखा मुझको।
किस ख़ता की सज़ा मिली ‘रजनी’
कौन दे बद्दुआ गया मुझको।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
फ़रेबी
फ़रेबी जात का आशिक वफ़ा को आजमाता है।
जिसे कल फ़िक्र थी मेरी वही दिल को सताता है।
सनम की याद के अहसास मेरे चाँद, तारे हैं
ज़माने में कहाँ,कब, कौन अब रिश्ता निभाता है?
दिलों के दरमियां क्यों आरजू में फ़ासले आए
हमारी बेबसी के वक्त भी किस्से सुनाता है।
ग़मों की इस तपिश में जल रहा दिन-रात दिल मेरा
सुलगकर दर्द अधरों पे हमारे मुस्कुराता है।
नहीं शिकवा -शिकायत की न थीं मजबूरियाँ कोई
तुम्हारी याद का मौसम हमें हर पल रुलाता है।
दुआओं में उठे जिसकी सदा ही हाथ मेरे हैं
वही दिल भेदने को सामने नश्तर चलाता है।
लड़ो तूफ़ान से ‘रजनी’ भरोसा बाजुओं पे रख
सहारे लाख हों लेकिन किनारा छूट जाता है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
कभी झूठ जग से छुपाया न जाए।
छुपा कर दिलों में दबाया न जाए।
लगी चोट दिल पे किसी के सितम से
उसे पीर बनके दिखाया न जाए।
अगर ढूँढ़ लो तुम खुशी ज़िंदगी में
हुई दुश्मनी को निभाया न जाए।
मिले आँसुओं का समंदर सुखा दो
पलों को खुशी के चुराया न जाए।
उदासी अधर पे सदा मुस्कुराए
दबा दर्द अपना सुनाया न जाए।
बनो गर सहारा सभी मुफ़लिसी का
कहीं बेबसों को सताया न जाए।
जपो नाम प्रभु का हरो दुख पराये
सहारा बनो दिल दुखाया न जाए।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी
किसी-किसी की नज़र आसमान होती है।
हसीन ख्वाब ज़मीं शादमान होती है।
जिन्हें है खौफ़ नहीं रास्तों की मुश्किल का
बला का जोश इरादों में जान होती है।
यहाँ जो हौसले अपने बुलंद रखते हैं
उन्हीं परिंदों की ऊँची उड़ान होती है।
रुला रहे हैं किसानों के हाथ के छाले
इन्हीं के स्वेद से भूमि की शान होती है।
सियासतें यहाँ मजहब के नाम होती हैं
फ़रेबी जात की नकली दुकान होती है।
चुकाते कर्ज़ जवां जख़्म सह के सीने पे
लहू में जोश इरादों में जान होती है।
मुसीबतें ही सिखातीं हमें हुनर ‘रजनी’
यही घड़ी तो सही इम्तिहान होती है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’