गजल —— साँझ का धुंधलका सब कुछ, साँझ का धुंधलका रे.
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साँझ का धुंधलका सब कुछ, साँझ का धुंधलका रे.
आज धुँध में लिपटा-लिपटा किसे पता है कल का रे.
ना यह अपना,ना वह अपना;फागुन,वर्षा,जाड़ा,गर्मी.
जो आया तन जला गया है;दुनिया हाय! सबल का रे.
मौसम को सम्मान दिया है,इसे बिठाया सर आँखों पर.
इसे विनम्रता मेरी कहिये;नहीं समर्पण निबल का रे.
दूब नपुंसक फले न फूले; इससे पर,सौन्दर्य धरा का.
व्यर्थ नहीं कुछ सभी अर्थमय;इसे उचित रूप में झलका रे.
शाम सुरमई,भोर सुरभिमय,दुपहर मीठा,रात नशीली.
क्यों नहीं जीने को मन तरसे ;क्यों नहीं मचे तहलका रे.
किसके मरने पर रोये वह,हंसे और किसके जीने पर.
तब भी पत्थर था सिर था,प्याला अब भी गरल का रे.
धुंध है गहरी,सूरज सहमा जीने से डर उठे हैं वह.
मौत बुलाने से आ जाये यह डर भी है असल का रे.
रुख से खींचो वह हर पर्दा ताकि चमके हर वह चेहरा.
अब न डराओ स्याह सोच से अब तो बनो तरल सा रे.
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