गजल थी जिन्दगी
किसी की याद में मैं इस कदर भूला जमाने को।।
बताऊं तो तुम्हें कैसे रहा अब क्या बताने को।।
लगी थी चोट दिल में पर दवा सिर में लगाता हूं।
मैं अक्सर सोचता हूं भूल जाऊं उस फसाने को।।
मिले वो खत मुहब्बत के लिखे उसके किताबों में।
छुपाकर रख रहा हूं मैं जभी जाता जलाने को।।
बदलकर करवटें बिस्तर को गीलाकर रही आंखें।
वो बनकर ख्वाब रातों में चले आते सताने को।।
जहन्नुम में डुबोकर ऐश से जन्नत में बैठे हैं।
उंगलियों के इशारे से बुलाते पास आने को।।
गजल थी जिन्दगी “प्रेमी” ये अफसाना हुई ऐसे।
वो अपना आज माने हैं लगे थे आजमाने को।।
—-सतगुरु प्रेमी
बछरावां रायबरेली