गजल–जिस गली से गुजरा खूँ से लिपटी मिली वो गली
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जिस गली से गुजरा खूँ से लिपटी मिली वो गली
किस शहर में आ गया हूँ ठिकाना ढूँढने मैं अली।
जिस नदी में जल का निवास था सन्नाटा पसर गया।
इसको इस तरह दहशत से कौन बेजुबान कर गया।
उस गाँव में फिर से गये थे लोग समृद्धि देखने।
गाँव अब भी गाँव था बदहाल सा रोटियाँ कुरेदने।
दायरे जितने बड़े हों दायरे का दायरा विंदु मात्र सा।
एक क्षण है एक कण है आदमी का ब्रह्म में दायरा।
आग में सूरज न देखो आग में खुद को न देख।
एक चिंगारी उठाओ हक से दो दरिया में फेंक।
राख के काबिल नहीं तुम आग के काबिल बनो।
डूब जाते आग में जो उनके तुम साहिल बनो।
यह नहीं रावण का सिर है बार-बार उगता नहीं।
दहशतों से डर के कोई सिर यहाँ झुकता नहीं।
क्यों अंधेरे से डरोगे रौशनी तुम खुद ही हो।
दीप एक संकल्प का,लो जला और बढ़ चलो।