गंगा
विद्या- कविता
विषय- गंगा
हे सुरधुनि, सुरनदी, सुरसरि, सुरापगा,
हे नदीश्वरी, मंदाकिनी, विष्णुपदी, देवापगा।
हे सरयू त्रिपथगामिनी,गंगा,
जाह्नवी,त्रिपथगा देव सरिता।
हे जीवन दायिनी भागीरथी,
शिव स्वयं हैं तेरी सुंदरता।
त्वं नमामी गंगे सश्रद्ध प्रणाम
तुमसे गंगे सर्व जीवन अभिराम।
तुम अविरल , कोमल ,चंचल ,निर्मल परिवेश
तुम कल कल वरदायिनी देती सजल संदेश।
तुम चंचल,शीतलता से अपनी ,भू उर करती सुप्रदेश।
गंगा नित पावन जल से हरती सबकी प्यास क्लेश।
जब पाप से पीड़ित वसुधा का हृदय अति तरसा।
कीन्हां स्वागत भगीरथ,वंदन चंदन धरा बरसा।
हे काशी ‘गरिमा हिम तनया,
हे पापमोचनी शिव ‘महिमा ।
तेरे ही पावन जल से तो,
धरती पर उपजी हरितीमा।
खग मृग नाचे, दामिनी चमकी,
गंगा आगमन से धरिणी दमकी।
गंगा दिव्य जलधारा से थीं
अचला अतिशय सुहानी हुई।
मनोरम दृश्य अद्भुत दर्शित था
जब चुनरिया वसुधा की धानी हुई।
तूम भारतीय संस्कृति का समां गंगे।
नीलिमा से तेरी भू हरितीमा है गंगे।
है कोटि-कोटि मां नमन तुम्हे,
तेरी अक्षत अगम महिमा गंगे।
सब लालित पालित हैं तुमसे
सब वन उपवन स्पंदित तुमसे।
हे दिव्य प्रवाहित सुरसरिता कल कल
तुम सुष्मिता सस्मिता विमल विरल।
हे हिम का निश्छल निर्मल अमल जल।
तुम बहती अविरल कल कल,छल छल।
त्वं गंगे, सुधा सम अनुपम पावन
तुम धन्य धन्य तुम अति मनभावन।
हाय! कृतध्न हो किया प्रदूषित गरल
हुई श्वास कठिन नहीं रही सुगम सरल।
नीलम गंगा जो सूख गई
तो संस्कृति-सभ्यता भी मरेगी।
होकर अपाहिज तू ही बता मनु
कैसे जन पीड़ा और प्यास भरेगी।
आओ मिलकर लें भीष्म प्रतिज्ञा कि
पावनी गंगा फिर से निर्मल होगी।
फिर से यह पतित पावन सुधा धारा
सलिल स्वच्छंद विमल अविरल बहेगी।
नीलम प्रदूषित गंगा से,
निश्चित तय है सब जीव मरण।
सोचो बिना गंगा जल के हम,
जीवन में लेंगे किसकी शरण।
नीलम शर्मा