गंगा से है प्रेमभाव गर
गंगा से है प्रेमभाव गर अरे गंगा को मन में उतार लो
शुद्ध कर्म अपनाकर सारे गंगा अपने मन में धार लो
गंगा से है प्रेमभाव गर……………
क्या होगा गंगा नहाकर मैल नहीं मन का जो धोया
क्या होगा तीर्थ करके जो अय्याशी में जीवन खोया
बुरे भाव त्याग कर सारे जीवन अपने को संवार लो
गंगा से है प्रेमभाव गर…………..
गंगा नहाकर पाप कटे तो सड़ते क्यों कैदी जेलों में
बीच रास्तों में नहीं होते कभी हादसे यूँ बस, रेलों में
रखो शुद्ध आत्मा अपनी वाणी में ही गंगा उतार लो
गंगा से है प्रेमभाव गर…………..
दीन-दुखी के कष्ट हरो सेवा का भाव दिखाना है तो
मात-पिता की सेवा कर लो पितृ दोष मिटाना है तो
घर में बहे त्रिवेणी” विनोद” जब चाहे डुबकी मार लो
गंगा से है प्रेमभाव गर……………
(हर हर गंगे नमामी गंगे)
स्वरचित
V9द चौहान