*गंगा जी के तट पर*
झेलीं जिनने यातन-बटियाँ , बसुधा जी के पट पर ।
ढूड रहा हूँ उनके अस्थिक-पंजर, गंगा जी तट पर।।
जन्म दिया पर निज जीवन में
कब ? कितना पाया था हास।
कब ? जाना साबन आया है
कब ? देख हँसे वे मधुमास।
पीड़ाओं के भंवर जाल में ,रह गए मात्र सिमटकर ।1।
लिए उष्णता दिन भर दिनकर
प्रचंड –धुप– में– तपते —–थे।
शीतलता की अमर बेल में वे
लिपट—काम—-करते——थे।।
धार मूसला सी भीषण वर्षा में, भीगे गात लिपटकर ।।
भूख तड़पती साध के मौनी ,
पर नहीं छजी मुख सिलवट ।
लक्ष्य साधना में निरत रह
बदल ना पाये निज करवट।।
तल्लीन जनों की सेवा में रित,पानी खींचे पनघट पर ।।
अनथके पगों से रातों में भी
काटी निष्कंटक लम्बी राहे ।
मेहनत से क्या पीछे हटना
कहते थे उठा उठाकर बाँहें।
आसान समझते थे मंजिल को,रहे अडिग निज अट पर ।।
क्या?बतलाऊँ अमिट कहानी
भगवन ऐसा भाग्य गढ़ा था ,।
मिले नहीं सुख -सागर गोते
मात्र दुःख ,सिर बोझ चढ़ा था।
कंकाल तंत्र रह गया शेष ,जीवन दरिया में घुट घटकर।
ढूढ़ रहा हूँ अस्थिक पंजर, उनके गंगा जी के तट पर ।।