“ख्वाहिश”
जान इसलिए तुमपर कुर्बान करने को मन करता है..
की किसी शाम तेरी आँखो का जाम पिने को मन करता है..
मौत लाजीम है आ ही जायेगी किसी-न-किसी दिन..
बस चन्द लम्हा तेरे ज़ुल्फ के साए मे जीने को मन करता है..
ज़रूरत ही नहीं की किसी आईने को देखु मै..
मुझे तेरी आँखो मे देखकर सवरने को मन करता है..
किसी किताब के पन्ने को उलट-पलट करने की ख्वाहिश ही नही..
मुझको तो अब बस तेरा चेहरा पढ़ने को मन करता है..
तेज़ धूप और और तेरे माथे पर पसिना है..
अब तो बादल बनकर तुझपर बरसने को मन करता है..
मुझको इतनी सी बात बता दे तु…?
की कोई कैसे तेरे दिल मे घर करता है..
मुझको भी छोड़कर दुनियादारी ज़माने की..
अब तो तेरे दिल मे बस जाने को मन करता है..
(ज़ैद बालियावी)