ख्वाहिशें आँगन की मिट्टी में, दम तोड़ती हुई सी सो गयी, दरार पड़ी दीवारों की ईंटें भी चोरी हो गयीं।
शब्दों के इस भीड़ में, भाषा आँखों की तिरस्कृत हो गयी,
शोर करती रहीं धड़कनें, माला साँसों की खंडित हो गयी।
ख्वाहिशें आँगन की मिट्टी में, दम तोड़ती हुई सी सो गयी,
दरार पड़ी दीवारों की ईंटें भी चोरी हो गयीं।
क़िस्मत की वो कश्तियाँ, वक़्त के तूफ़ानों में रुस्वा हो गयीं,
साहिलों ने दी ऐसी ठोकरें की लहरें भी खामोशी में रो गयीं।
रंगीन नजारें शहर के थे, जो कोरी आँखों से बदरंग सी हो गयी,
बोली लगी थी दर्द की, नीलामी खुद की खुशियों की हो गयी।
जब जल रहे थे खुद में हीं, तब बौछार सपनों की हो गयी,
सहमे क़दम बढ़ाये हीं, की पहचान खुद की चिता से हो गयी।
हाथों की लकीरें बस खंजरों की निशानी में तब्दील सी हो गयी,
चमके जब तारे बनकर, मोहब्बत क्षितिज की विरानगी से हो गयी।