ख्वाबों के महल
पल में बनते, बिगड़ते जा रहे हैं,
ख्वाबों के महल!
ये ख्वाब है स्वतंत्र, मनमौजी..
जो निकलते हैं एकांत समय,
जब सो जाती अमीरी-गरीबी,
सो जाती है भूख-प्यास,
सो जाती है दुश्मनी-मित्रता,
जो जगने पर आपस में झगड़ती है।
ये ख्वाब आते सबको,
जो नहीं देखता कौन छोटा-बड़ा?
कौन किस पायदान पर खड़ा?
ले जाता उस दुनिया में,
जहां होते आलिशान महल..
ताज ओ तख्त, पैसों के घर..
जब तक पहुंचता मनुष्य वहां ,
छोड़ अधूरा टूट जाते..
लाते फिर उसी ही जगह,
जहां मानवता आपस में लड़ती है।।
रोहताश वर्मा “मुसाफिर”