खोने को कुछ भी नहीं
बुरा दौर सारी अच्छाइयाँ समेट ले जाता है।
हम अपनी अच्छाइयों को सिलसिलेवार गिनाते हैं।
वक्त बदला तो यकीन हमारे लफ्ज पे नही हमारे वक्त पे होने लगा।
न जाने ये वक्त का नापाक सिलसिला कबतक चलता रहेगा।
खोने को कुछ भी नहीं है पास सिवाय बेकार खुद के।
फिर सोचा क्यों न अपनी बेकारी को ही खो दूँ
क्योंकि बेकार खुद के सिवाय कुछ भी खुद ही नही है मेरे पास।
-सिद्धार्थ गोरखपुरी