खोकर के अपनो का विश्वास ।….(भाग – 3)
आज मैं गलती कर बैठी हूँ,
खोकर के अपनो का विश्वास,
हे ! माँ और पिता करना तू मुझे क्षमा,
हुई है मुझसे जो खता,
समझ ना सकी स्वांग प्रेम का,
अनसुना कर किया जो अपमान ,
जीवन स्त्री का बहता पानी,
नदी किनारे रह गई ना आस,
तड़प रही हूँ देखने को चेहरा अपनो का,
पीछे छोड़ घर द्वार त्याग चली गई,
मेरी पीड़ा कोई न सुनने वाला,
छोटी-सी गुड़िया उदास है तेरी,
अपना लो माँ ह्रदय से लग जाऊँ,
अन्यथा जीना है दुख का संसार ।…….(5)
आज मैं गलती कर बैठी हूँ,
खोकर के अपनो का विश्वास ,
एक डोर विश्वास का,
जोड़ना खुद से नहीं आसान,
पारखी नजरें भी खाती है धोखा,
कर गई छलिया पर अटूट विश्वास ,
अनजाना अपना सा लगा जब ,
अपनो को एक पल खोया तब,
दो बूँद नहीं अश्रु निकले आँखों से,
आँखों में धूल झोखा था जिसने,
सिसक सिसक रोती अंधेरे में,
सूखी पड़ी हैं नैनो की धार,
शेष बचा जीवन में इंतजार,
अंतिम क्षण तक मेरा संसार ।………(6)
रचनाकार –
बुद्ध प्रकाश
मौदहा हमीरपुर ।