खेलती है चिन्गारियां
खेलती है चिन्गारियां
बेबस आग के लिए
है मजदूर लहू बहाता
कठपुतली से बैठे
साहूकार के लिए
दीर्घ चोटी पर
है लहराता ध्वजा
मिट जाती है नींव
स्वाभिमान के लिए
कितनी सांसे जी ली
न जाने कितनी बाकी है
कौन आता है यहाँ
हिसाब के लिए
मेरा मकसद नहीं
शीर्ष पर पहुंचना
मैं आयी हूं इस जहां में
धूल से लिपटे हाथों के
कीर्तिमान के लिए
-सोनिका मिश्रा