खेत खलियान
खेत खलियान की पगडंडी मेढ हो गई विरान ।
पढ़े लिखे सब हो गए किया शहर को प्रस्थान।।
बचपन में जब तुम आते थे करते थे यहां काम ।
आवाज मै ही देता था जा घर पर हो गई शाम ।।
बहुत थक गए घर चले जाओ कर लो अब आराम।
शहर जाकर भूल गया खेत में मिट्टी का सिहराना।।
मखमली गद्दो पर सोता है बदल लिया आशियाना ।
गांव की आबो हवा भी धीरे-धीरे बदलने लगी पैमाना।।
क्योंकि शहर की लौ भी यहां कुछ जलने लगी है।
प्रकाशित नहीं कर पा रही है ग्रामीण के जहां को।।
तुम बिन यह सारी बगिया भी अब उजड़ने लगी है।
मिट्टी का चूल्हा मिट्टी भरा आंगन भी बदल गया है।।
पतझड़ की बहार ने आंगन को पत्तों से भर दिया है।
धूप छांव का खेल भी यहां कुछ बदलने सा लगा है।।
बनने लगी है गगन चुम्भी इमारतें यहां भी पत्थर की।
कच्चे मकान की ठंडक को खोकर बदलाव किया है।।
कुओं का पानी खत्म होने लगा खत्म हुआ तालाब भी।
मीठा पानी खारा होने लगा बुझाता अब प्यास नहीं है।
बोल भी कसेले हो गए हैं रहा अब वह मिठास नहीं है
दरख़्त काट दिए भारी भरकम होती जहां पंचायत थी।।