खेती और जज्बा
डरी सहमी स्तब्ध जनता खडी,
विज्ञापनी आहट से रुसवा हुई.
चेतावनी भरी दस्तक ये कौन
शाश्वत सनातनी हठी फरमान
रोंदने आये सुनहरे मेरे अरमान
पत्तों की तरह उडते बिखरते पल,
बचपन बिफरा परिवार सहे सितम
तुझे अपनी जीत जिद्द की पड़ी है.
खोज लाये चंद जयचंदी परिवार
निकाले है हमने बड़े खरपतवार.
फसल का हो जो दुश्मन प्रकृति भी,
बदल लेते है डरावनी आवाज देकर.
सितमगर सामने आ मत भौंक इतना,
दलालों की भाषा छोड़कर बोल जरा.
महेन्द्र सिंह हंस