खूब बारिश है हर समा तर है
साथ है उसका फिर तो क्या डर है
वो खुदा ही तो मेरा रहबर है
रात से ही नहीं खुला मौसम
खूब बारिश है हर समा तर है
चेहरे खिल उठे हैं फसलों के
खूब सूरत सा एक मंजर है
देखते क्यों नहीं हो साहब जी
रास्ते में गरीब का घर है
दूसरों की कमीं निकाले जो
झाँकता क्यों न खुद के अंदर है
ढूंढते फिरते हो ज़माने में
अब ठिकाना मेरा तो ‘सागर’ है