खूब कमाते मगर भिखारी
तन मेरा था मन मेरा था ,
लेकिन मिलन नही होया।
बचपन में डरता पापा से,
छुप छुप कर तन्हा रोया।
थोड़ा बड़ा हुआ तो कांधे,
बांध दिया मेरे बस्ता।
जाना किधर मुझे नहि जाना,
दिखा दिया कोरा रस्ता।
अपनी मन की कैसे करता ,
अपने मन की कब सुनता।
तोता बनकर पढ़ता रहता,
देख किताबें सिर धुनता।
थोड़ा बड़ा हुआ तो जाना,
यार जमाना काफ़ी है।
मन को फिर होले से डांटा,
सुनना नाइंसाफी है।
रहा तड़पता मन बेचारा,
कैद कफ़स थी यौवन की,
मस्त गगन में उड़ूँ अकेला,
यूँ तरंग थी जोबन की।
पर आँख पिता जननी की थी,
सो दबकर के रह जाता,
अपने मन की कब करता मैं,
कटे पंख भू पर आता।
मैं मन में सोचा करता था ,
जॉब कहीं लग जाने दो।
फिर अपनी सब ही सुन लूँगा,
पराधीन मिट जाने दो।
जॉब लगी तो सो सो नखरे,
मन खूब कुलाँचे भरता ,
देख काम व बॉस के बंधन,
मन फिर संकोचे रखता।
चलो भामिनी एक मिलेगी,
चैन सुकूँ तब आएगा,
तब कर अपने मन की सारी,
जीवन खुश हो जायेगा।
शादी करके खुश हो जाना,
मकड़ जाल से ज्यादा क्या?
जितना सुलझा उतना उलझा,
उतरा कभी लबादा क्या?
किसे फ़िकर थी मेरे मन की,
सब अपने मन की करते ,
जितना लुटता जाता था मैं,
मौज मनाया वो करते।
उनके सपने पूरे होते,
मेरे सपने थे मिटते।
खूब कमाते मगर भिखारी,
सा जीवन जीते रहते।
किस्ते बढ़ती जाती ऋण की,
मन की किस्तें घट जाती ,
तन का चेक लौटता खाली,
साँसे नित थमती जाती।
पूरा जीवन बीत रहा है,
टुकुर टुकुर गिरता पानी।
यह जीवन तो गया व्यर्थ ही,
रह गया बनकर इक कहानी।
कलम घिसाई
9414764891
कॉपी राइट