ख़ून जलता है कारख़ाने में
ये हुआ असलियत बताने में
मुश्किलें बढ़ गई ज़माने में
तब यह चूल्हा धुआँ उगलता है
खून जलता है कारख़ाने में
ग़म दहकते हैं इस क़दर दिल में
होंट जलते हैं मुस्कुराने में
ये करिश्मा नहीं तो फिर क्या है?
जी रहा हूं तिरे ज़माने में
सहमी सहमी हैं फाख्ताएं यहाँ
बाज़ बैठे हैं कुछ निशाने में
इश्क़ की जंग भी अजब शय है
जीत होती है हार जाने में
हम लगाएं गुहार अब किससे
अद्ल बिकने लगा है थाने में
हम फ़क़ीरी से लौ लगा बैठे
ठोकरें मारकर ख़ज़ाने में
जिस्म ‘अरशद’ लहूलुहान हुआ
बाग़बाँ से चमन बचाने में